।। श्रीहरिः ।।

सच्चा गुरु कौन ? -२
(गत ब्लॉगसे आगेका)
अर्जुनने कहा कि 'शिष्यस्तेऽहं शाधि माम् त्वां प्रपन्नम्' । आपके शरण हूँ, शिक्षा दीजिए । तो वह शिक्षा भगवान ने दी है । इस तरहसे संसारमें सबके गुरु भगवान् श्रीकृष्ण है । कृष्ण भगवान् को मानेगा और उनकी गीता सुनेगा तो उसको ज्ञान हो जायेगा । अन्तमें भगवानने पूछा है अर्जुनसे कि तुमने गीता सुना ? और क्या आपका मोह नष्ट हो गया ? परन्तु अर्जुन ने कहा कि मेरा मोह आपकी कृपासे नष्ट हो गया है । गुरुकी कृपा होती है, उसमें विलक्षण शक्ति होती है । गुरु-शिष्य सम्बन्ध मानने मात्रसे नहीं होता है । इस वास्ते अर्जुन कहता है कि एकाग्रतासे गीता सुनी, उससे बोध हो गया, यह बात नहीं है । आपकी कृपासे हुआ है । अर्जुन अपनी पंडिताई नहीं मानता कि मैंने ठीक ढंगसे सुना और मेरा मोह नष्ट हो गया, वह भगवान् की कृपासे मोह नष्ट हुआ ऐसा मानता है ।
भगवान् ने भगवद्गीताके १० वें अध्यायके ९ वें श्लोकमें विधि बताई है, १० वें में विशेष कृपाकी बात बताते है और ११ वें श्लोक में तो साफ बताया कि 'तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता' । केवल कृपासे अज्ञानसे उत्पन्न अन्धकारको मैं ज्ञानरूपी दिपकसे नष्ट कर देता हूँ । अतः ऐसे गुरुके रहते हुए क्यों इधर-उधर जाते हो भाई ! भगवान् को मानो ! भगवान् गुरूजीसे भी ज्यादा बोलते है, मामूली नहीं बोलते है । भगवान् के शरण होकर गीता पढ़ो । यह गुरु महाराजकी वाणी है, सबकुछ ठीक हो जायेगा । गुरुभक्तिसे कल्याण होता है, गुरुसे कल्याण नहीं होता है । अटपटी बात लगाती है न ? अगर गुरु कल्याण करते हो तो अपने सबका कल्याण कर दें ! गुरु शिष्य बनाता है कि शिष्य गुरु बनाता है ? वृक्ष पर मधुर, मीठा फल पक जाता है फिर तोता आकार चोंच मारता है, ऐसे ही आप योग्य शिष्य बन जाओ तो पहाडोमें रहनेवाले, बद्रिनारायणमें रहनेवाले संत आकार भी उपदेश दे देंगे । भगवान् सबके अंदर बिराजमान है । एकनाथजी महाराजका जीवन चरित्र देखो, कितनी विचित्र गुरुभक्ति है । गुरुजीने समाचार भेजा कि वहाँ ही रहना, तो पीछे गुरूजीका शरीर शांत हो गया तो भी नहीं गए । इसपर किसने उनको कहा तो बोले, 'मरे गुरु रोये चेला तो दोनोंको क्या ज्ञान मिला' ? गुरु तो मरता नहीं और चेला रोता नहीं । एकनाथजी महाराजकी सेवा करने स्वयं भगवान् शिखंडीया नामके सेवक बनकर आये । ऐसी उनकी विलक्षण भक्ति थी । गुरु तो नित्य है, योग्य शिष्य नहीं मिलाता है । वास्तवमें दुर्लभ शिष्य है, गुरु दुर्लभ नहीं है । ज्ञान दुर्लभ नहीं है, ज्ञानका जिज्ञासु दुर्लभ है । सन्मुख हो जाय ऐसा पात्र दुर्लभ है । ज्ञान तो कहीं मिल जाय, किसीसे मिल जाय । परमात्मतत्त्व हरदम मोजूद है, सबके सामने ! पर जिज्ञासा न हो और आराम, सुख, और पैसा संग्रह करनेमें लगा हो तो वह गुरुको कैसे पहचानेगा ? चाहना रुपयें और भोगोंकी है । जैसे भुखेको अन्न बिना संतोष नहीं होता, ऐसे ही सच्चे जिग्यासुको हरेक जगह समाधान नहीं मिलता, शान्ति नहीं मिलती; तो वह कैसे अटकेगा ? भूखे आदमीकी अन्न-जल बिना कैसी दशा होती है ? ऐसी दशा भगवान् के बिना हो जाय तो भगवान् मिल जाय । जो कहे कि तुम चेला बनो फिर ज्ञान देंगे तो उनके पास ज्ञान नहीं है । जिसको चेलेकी गरज है वह तो चेलादास है ! गुरु कैसे बन जायेगा ? जो धन चाहता है वह धनदास है, मान चाहता है वह मानदास है ! गुरु कैसे बन जायेगा ? गुरु बनता है और भेट-पूजा चाहता है तो वह आपका पोता चेला हुआ ! आप धनके मालिक हो और उसको धनकी चाहना है । गुरु वह होता है जिसको किसीकी किंचितमात्र भी चाहना नहीं होती है । संतोके मनमें किसी बातकी चाहना नहीं होती है । 'चाह गई चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह; जिसको कछु न चाहिए, वह शाहनपतिशाह' ।
आप कामनका त्याग कर दो । किसी भी तरह कि चाहना न हो, तो कल्याण हो जायेगा । यह गुरुवाणी है, भगवान् ने गीताजीमें कहा है, 'त्यागाछान्तिरनन्तरम्', त्याग किया तो तत्काल शान्ति । यह कामना ही बंधन है । इच्छारहित होते ही योग, ज्ञान, भक्ति सब मिल जाता है । इच्छा, वासना ही बाधा है । न जीनेकी इच्छा हो, न मरनेकी इच्छा हो, कोई भी इच्छा न हो तो तत्काल तत्वज्ञान, जीवन्मुक्ति हो जाय ! संसारका सम्बन्ध सांसारिक इच्छा से ही है । भगवान् के सिवाय कोई इच्छा न हो तो भगवान् मिल जायेंगे । इच्छा मात्रसे संसारकी प्राप्ति नहीं होतीहै, परन्तु भगवान् केवल अनन्य इच्छा हो जाय तो मिल जाते है । जिसका जिस पर सत्य स्नेह होता है, वह मिल जाता है । भगवानकी कृपा, गुरुकृपा अखंड बरस रही है । 'सन्मुख हो ही जीव मोहि जबही, जनम कोटि अघ नासहिं तबही' । गुरु मिलेगा तो एक सम्प्रदयाका मिलेगा, परन्तु भगवानको सभी सम्प्रदायवाले मानते है ।
—दि। ४/११/१९९३, दोपहर २.३० बजेके प्रवचनसे