।। श्रीहरिः ।।
भगवान् से अपनापन-५

(गत् ब्लॉगसे आगेका)
अर्जुनने पूरी गीता सुननेके बाद क्या कहा ? ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा’ (१८/७३) मोह नष्ट हो गया और स्मृति मिल गयी, याद आ गयी । जो भूल हो गयी थी, वह याद आ गयी कि मैं तो आपका हूँ । अब क्या करोगे ? तो कहा —‘करिष्ये वचनं तव’ आप जो कहोगे, वही करूँगा । मैं तो आपका हूँ ही, पहले भूल गया था, अब वह भूल मिट गयी ।

हम सदासे परमात्माके ही हैं । शरीर संसारसे मिला है । जिन माता-पितासे यह शरीर मिला है, उनकी सब तरहसे सेवा करना, सुख पहुँचाना, आदर करना हमारा कर्त्तव्य है । पर हम स्वयं परमात्माके ही हैं । इस बातको ज्ञानी भक्त प्रह्लादजी जानते थे । पिताजी कहते हैं कि तुम भगवान् का नाम मत लो, उनका भजन मत करो; यदि करोगे तो मार दिए जाओगे । परन्तु प्रह्लादजी इस बातसे भयभीत नहीं होते । उनके पिता हिरण्यकशिपुने अपनी स्त्री कयाधूसे कहा कि तू अपने लड़केको जहर पीला दे । कयाधू पतिव्रता थी । उसकी गोदमें प्रह्लाद है और हाथमें जहरका प्याला । माँके द्वारा बच्चेको जहर पिलाया जाना बड़ा कठीन काम है । प्रह्लादजी अपनी माँसे कहते हैं कि माँ ! तू मेरेको जहर पीला दे तो तेरे भी धर्मका पालन हो जायगा और मेरे भी धर्मका पालन हो जायगा । प्रह्लादजी जहर पी गये, पर मरे नहीं; क्योंकि उनको भगवान् पर पूरा भरोसा था । उन्होंने पिताजीकी आज्ञाको भंग नहीं किया । उनको समुद्रमें डुबाने लगे तो उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरेको समुद्रमें क्यों डुबाते हो ? वे वहाँसे बच गये तो उनके ऊपर वृक्ष और पत्थर डाल दिये गये । उनको पहाडसे गिराया गया, हाथीसे कुचलवाया गया, अस्त्र-शास्त्रोंसे काटनेकी चेष्टा की गयी, पर वे मरे नहीं । प्रह्लादजीने कभी यह नहीं कहा कि आप मेरेको मारते क्यों हो ? परन्तु भगवान् का भजन नहीं छोड़ा ।

पिताजीने उनको शुक्राचार्यजीके पुत्र शण्डामर्कके पास भेजा । वहाँपर वे पढाई नहीं करते । गुरूजी जब बाहर जाते, तब वे पाठशाला बना देते । वे राजकुमार थे; अतः सब लडके उनके कहनेसे भजन करते । गुरुजीने देखा कि प्रह्लादजीने तो पाठशालाको भजनशाला बना दिया; अतः वे हिरण्यकशिपुके पास जाकर बोले कि महाराज ! आपका लड़का खुद तो बिगड़ा ही है, दूसरे लड़कोंको भी बिगाड रहा है । हिरण्यकाशिपुने प्रह्लादजीको बुलाकर पूछा कि तेरी यह खोटी बुद्धि कहाँसे आयी है ? स्वतः पैदा हुई है कि यहाँ किसीने तेरेको सिखायी है ? प्रह्लादजीने कहा कि पिताजी ! ऐसी बुद्धि न तो स्वतः पैदा होती है और न इसको कोई सिखा सकता है । यह तो सन्त-महात्माओंकी कृपासे मिलती है ।

बचपनमें प्रह्लादजीपर नारदजी महाराजकी कृपा हुई थी । प्रह्लादजी जब माँके गर्भमें थे, तब इन्द्रने आकार लूटपाट की और कयाधूको ले गया । हिरण्यकशिपु उस समय तपस्याके लिये वनमें गया हुआ था । जब इन्द्र कयाधूको लेकर जा रहा था, तब रास्तेमें नारदजी मिले । नारदजीने कहा कि इस अबलाको क्यों दुःख दे रहा है ? इस बेचारीने क्या अपराध किया है ? इन्द्र बोला कि महाराज ! इसके पेटमें मेरे शत्रु हिरण्यकशिपुका अंश है । उसने अकेले ही हमें इतना तंग कर दिया है, जब दो हो जायँगे, तब बड़ी मुश्किल हो जायगी ! इसलिए मैं कयाधूको ले जाता हूँ । जब इसका बच्चा जन्मेगा, तब मैं उसको मार दूँगा, कयाधूको कुछ नहीं करूँगा ।नारदजीने कहा कि इसका जो बच्चा होगा, वह तेरा वैरी नहीं होगा । नारदजीकी बात राक्षस, असुर, देवता, मनुष्य सब मानते हैं; क्योंकि वे सन्त जो ठहरे । सन्तोंपर सबका विश्वास होता है । इन्द्रने उनकी बात मान ली और कयाधूको छोड़ दिया । नारदजीने कयाधूको एक कुटियामें रखा और कहा कि बेटी ! तुम चिंता मत करो और यहींपर आनंदसे रहो । जैसे पिताके घर लडकी प्यार-से रहति है, ऐसे ही वह भी वहाँ रहने लग गयी । नारदजी उसके गर्भको लक्षमें रखकर भगवान् की कथाएँ सुनाते थे । इसके गर्भमें जो बालक है, वह भगवान् का भक्त बन जाय—इस भावसे वे सत्संगकी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें सुनाते थे ।

माता घट रह्यो न लेश नारदके उपदेशको ।
सो धारयो अशेष गर्भ मांही ज्ञानी भयो ॥

नारदजीका उपदेश माँको तो याद नहीं रहा, पर प्रह्लादजीने गर्भमें ही उस उपदेशको धारण कर लिया । वे वहींसे भक्त बन गये । भक्त बननेसे उनके हृदयमें यह बात आ गयी कि मैं स्वयं तो वास्तवमें परमात्माका ही हूँ और यह शरीर माता-पिताका है । माता-पिता यदि इस शरीरके टुकड़े-टुकड़े भी करें तो भी मेरेको बोलनेका कोई अधिकार नहीं है; क्योंकि शरीर उनका दिया हुआ है । परन्तु मैं स्वयं साक्षात् परमात्माका अंश हूँ; अतः परमात्मसे हटानेका इनको अधिकार नहीं है । मैं परमात्माकी तरफ लगूँ और यह शरीर माता-पिताकी सेवामें लगे ।

सज्जनो ! यह शरीर माता-पिताका है । इसलिए माता-पिताकी खुब सेवा करो, सब तरहसे उनको सुख पहुँचाओ, उनका आदर-सत्कार करो । वास्तवमें सेवा करके भी आप उऋण नहीं हो सकते । माँके ऋणसे कोई भी उऋण नहीं हो सकता । संसारसे जितने भी सम्बन्ध हैं, उनमें सबसे बढकर माँका सम्बन्ध है । इस शरीरका ठीक तरहसे पालन-पोषण जैसा माँ करती है, वैसा कोई नहीं कर सकता‘मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम् ।’ इसलिए कहा गया है—

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन ।
अपारसंवित्सुखसागारेऽस्मिन लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेतः ॥
(सकंन्दपुराण, माहे. कौमार. ५५/१४०)
अर्थात् जिसका अन्तःकरण परब्रह्म परमात्मामें लीन हो गया है, उसका कुल पवित्र हो जाता है, उसकी माता कृतार्थ हो जाती है, और यह सम्पूर्ण पृथ्वी महान् पवित्र हो जाती है ।
जननी जणे तो भक्त जण, के दाता कै सूर ।
नहिं तो रहजे बाँझडी, मती गमाजे नूर ॥

मैंने सन्तोंका बधावा बोलते समय सुना है—‘धिन जननी ज्यांरे ए सुत जाया ए, सोहन थाल बजाया ए ।’ जिस माताने ऐसे भक्तको जन्म दिया है, वह धन्य है ! कारण कि बालकपर माँका विशेष असर पडता है । प्रायः देखा जाता है कि माँ श्रेष्ठ होती है तो उसका पुत्र भी श्रेष्ठ होता है । इसलिए जिसका मन भगवान् में लग जाता है, उसकी माँ कृतार्थ हो जाती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे