।। श्रीहरिः ।।
सत्संग निर्झर-१

दोषोंको मिटानेका अचूक उपाय है— दोषोंको अपनेमें न माने, और दोषजनित गलतीको दुबारा न करे । बारम्बार गलती करनेसे ही दोष बने रहते हैं । गुण और दोष दोनों ही उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं और हम स्वयं निरन्तर रहनेवाले हैं । ऐसे ही संसार उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है एवं परमात्मा निरन्तर रहनेवाले हैं । अतएव हम स्वयं और परमात्मा तो एक हैं और दोष तथा संसार एक । तात्पर्य यह कि हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ है संसार और दोषोंके साथ नहीं । परन्तु हमने परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध मान लिया, यह गलती हुई । संसार और शरीरसे सम्बन्ध हमने ही माना है, संसार और शरीरने हमसे सम्बन्ध नहीं माना है । हम ही परमात्मासे विमुख हुए हैं, परमात्मा हमसे विमुख नहीं हुए हैं । अतएव संसार और शरीर मेरे नहीं हैं तथा मैं उनका नहीं हूँ, अपितु परमात्मा मेरे हैं और मैं परमात्माका हूँ—ऐसा आज ही मान लें । शरीर संसारका अंश है और हम परमात्माके अंश हैं । शरीरको संसारकी सेवामें अर्पण कर दे और स्वयंको परमात्माके अर्पण कर दे—इतना ही काम साधकको करना है ।

संसारको अपना मानते ही मनुष्य फँस जाता है और तरह-तरहके दुःख भोगता है । वह समझता तो यह है कि शरीर, धन, जमीन, मकान, परिवार आदि मेरे हैं और मैं उनका मालिक हूँ पर वास्तवमें वह उनका गुलाम हो जाता है । वहम तो मालिक बननेका होता है पर बनता है गुलाम—यह बिलकुल सच्ची बात है । मनुष्यको चाहिये कि उन वस्तुओंकी सेवा कर दे और उनसे कोई आशा न रखे, उनमें ममता न करे । शरीरकी भी सेवा कर दे । उसे अन्न, जल आदि दे दे पर उसे अपना न माने । शरीरको सदा रख नहीं सकते, उसे इच्छानुसार बना नहीं सकते, उसमें चाहे जैसा परिवर्तन नहीं कर सकते, फिर वह अपना कैसे ? रुपये, जमीन, मकान आदिको भी इच्छानुसार नहीं रख सकते । अतः ‘वे अपने है’—यह सरासर झूठी बात है । वे सेवाके लिये हमें मिले हैं, अतः उनकी निस्वार्थभावसे सेवा कर दें । वे अपने दीखते हैं तो भगवान् की उदारता है । भगवान् किसीको कोई वस्तु देते हैं तो इस ढंगसे देते हैं कि वह उसे अपनी ही प्रतीत होती है । यह देनेवालेकी विलक्षण उदारता है कि सब कुछ देकर भी उसने अपने-आपको छिपा रखा है । मिली हुई वस्तुको अपनी मानना भगवान् की उदारताका दुरुपयोग है । अतः जो अपना नहीं है, उसे अपना नहीं मानना है और जो वास्तवमें अपना है, उस (परमात्मा) के सम्मुख होना है ।

शरीरादि पदार्थ प्रतिक्षण ही नाशकी ओर जा रहे हैं । आजतक ये पदार्थ किसीके पास सदा नहीं रहे तो अब कैसे रहेंगे ? इन आने-जानेवाले पदार्थोंको अपनी ओरसे छुट्टी दे दें । ये आ जायँ तो मौज, चले जायँ तो मौज । इसीका नाम त्याग है । त्यागसे तत्काल शान्ति प्राप्त होती है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२/१२) । त्यागका अर्थ यह नहीं है कि धन, जमीन, परिवार आदिको छोडकर भाग जायँ । इन्हें छोडकर जहाँ भी जायँ, शरीर तो साथ ही रहेगा । शरीर भी तो उन्ही (धन, जमीन आदि) का साथी है । एक शरीरसे सम्बन्ध है तो संसारमात्रसे सम्बन्ध है । शरीर संसारका बीज है । एक बीजसे जंगल पैदा हो सकता है । इसलिए इन पदार्थोंको स्वरुपसे नहीं छोड़ना है, अपितु इन्हें अपना और अपने लिये नहीं मानना है । इन्हें अपना न माननेपर सब चिंता-क्लेश मिट जाते हैं । कन्या बड़ी होनेपर उसकी बहुत चिंता रहति है । पर उसका अच्छे घरमें विवाह हो जाय तो चिंता मिट जाती है । कन्या भी वही और हम भी वही पर विवाहके बाद वह कन्या हमारे घरमें बैठी है तो भी उसकी चिंता नहीं होती; क्योंकि अब वह अपनी नहीं है—ऐसा मान लिया । इसी प्रकार यह शरीर भी कन्या है । इसका पालन-पोषण तो करना है पर इसे अपना नहीं मानना है । इस शरीररूपी कन्याको भगवान् के हाथ सौंपकर निश्चिन्त हो जायँ ।


(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे