।। श्रीहरिः ।।



परमात्मप्राप्तिकी

सुगमता-२

आप कृपा करके ऐसा मत मानें कि वह ‘है’ दूर है, वह आयेगा अथवा हम उनके पास जायँगे, तब उससे मिलन होगा । नहीं तो भजन करते हुए आप तो समझते हैं कि हम भगवान् के पास जा रहे हैं, पर वास्तवमें भगवान् से अपनेको दूर कर रहे हैं, भगवान् से अपने सम्बन्धके अभावको दृढ़ कर रहे हैं । भगवान् तो फिर मिलेंगे, अभी तो नहीं मिलेंगे—ऐसी धारणा रखते हुए राम-राम जपते हैं, कृपा करके इस धारणाको छोड़ दो । हमें अनुभव नहीं हो रहा है—यह बात मानो तो कोई हर्ज नहीं, पर यह बात दृढतासे मान लो कि भगवान् सब जगह मौजूद हैं । ‘मैं हूँ’—इसमें भी भगवान् हैं, मनमें भी हैं, बुद्धिमें भी हैं, वाणीमें भी हैं । राम-राम-राम—इस आवाजमें भी भगवान् हैं । देखनेमें, सुननेमें, समझनेमें जो कुछ भी आ रहा है, वह सब भगवान् ही हैं । भगवान् कहते हैं—

मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रीयैः ।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिती बुध्यध्वमञ्जसा ॥
(श्रीमद्भागवत ११/१३/२४)

मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे, तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है—यह सिद्धान्त आपलोग तत्त्वविचारके द्वारा समझ लीजिये ।

अतः ‘भगवान है’—इतना आप मान लो, भले ही उनका अनुभव अभी न हो । सन्त-महात्मा कहते हैं, वेद-पुराण कहते हैं, बड़े-बड़े जानकर कहते हैं कि ‘वह है’ । बस ‘वह है’—ऐसा मानते हुए लगनपूर्वक राम-राम जप करो तो बहुत जल्दी अनुभव हो जायगा । उसका अनुभव कैसे हो ? क्या करूँ ? कैसे करूँ ? किससे पूछूँ ?—यह जिज्ञासा जोरदार हो जाय । राम-नामको छोडो मत; क्योंकि इसके सिवाय संसारमें और कोई सहारा नहीं है । मरनेपर भी कहते हैं—‘राम-नाम सत्य है’ । शरीर-संसार असत् है । अतः राम-राम करते रहो । ‘र’ में, ‘आ’ में, ‘म’ में, जीभमें, मनमें, स्फुरणामें, चिन्तनमें, बुद्धिमें, मैंपनमें—सब जगह वह परमात्मा परिपूर्ण है । जो सबमें रमण करता है और जिसमें सभी रहते हैं, उसका नाम ‘राम’है ।

राम-नामका जप बहुत ही महान् और सुगम है साधन है । कल लकवेकी बीमारीवाले एक भाई मिले थे, वे और कुछ नहीं बोल सकते थे, केवल राम-राम बोल सकते थे । उनसे भी पहले एक भाई कलकत्तामें मिले थे, वे भी कुछ नहीं बोल सकते थे, केवल ‘राम’—इतना कह सकते थे । राम-नाम लोकमें, परलोकमें सब जगह शान्ति देनेवाला, सबको सुख देनेवाला है ।

सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक निबाहू ॥
(मानस १/२०/१)

आप यह बात चाहे श्रद्धासे मान लो, चाहे विश्वाससे मान लो, चाहे युक्तिसे मान लो, चाहे अनुभवसे मान लो, चाहे सोच-समझकर मान लो कि परमात्मा सब जगह हैं; जहाँ आप हो, वहीं परमात्मा हैं । आपकी एकता परमात्माके साथ है,बदलनेवाले शरीरके साथ नहीं । शास्त्र भी डंकेकी चोटसे कहता है कि परमात्मा सब जगह हैं, सबमें हैं, सबके अपने हैं, सबके सुहृद् हैं । आप इसको दृढतासे मान लो । साधकसे बड़ी भूल यह होती है कि वह ‘भजन’ करेंगे, फिर परमात्मा मिलेंगे—ऐसा मान लेता है । यह भविष्यकी आशा ही महान् बाधक है । शास्त्रोंसे, सन्तोंके कहनेसे, किसीके कहनेसे यह मान लो कि परमात्मा तो मिले हुए ही हैं, केवल हमें दिखते नहीं । वर्तमानमें परमात्माका अभाव स्वीकार मत करो । अपनेको उनका अनुभव नहीं हो रहा है; अतः अनुभव कैसे हो—इसके लिये रात-दिन राम-राम रटना शुरू कर दो । फिर देखो तमाशा ! कितना जल्दी अनुभव होता है ।

जो जिव चाहे मुक्ति को, तो सुमिरीजै राम ।
हरिया गैले चालतां, जैसे आवै गाम ॥



—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे

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