।। श्रीहरिः ।।

गीतामें

मूर्तिपूजा-२


(गत् ब्लॉगसे आगेका)
भगवत्पूजनके सिवाय हाड़-मांसकी पूजा करना अर्थात् अपने शरीरको सुन्दर-सुन्दर गहनों-कपड़ोंसे सजाना, मकानको बढ़िया बनवाना तथा उसे सुन्दर-सुन्दर सामग्रीसे सजाना, शृंगार करना आदि मूर्तिपूजा ही है, जो कि पतनमें ले जानेवाली है ।


ज्ञातव्य

भगवान् सब जगह परिपूर्ण है—ऐसा प्रायः सभी आस्तिक मानते हैं; परन्तु वास्तवमें ऐसा मानना उन्हींका है, जिन्होंने मूर्ति, वेद, सूर्य, पीपल, तुलसी, गाय आदिमें भगवान् को मानकर उनका पूजन शुरू कर दिया है । कारण कि जो मूर्ति, वेद, सूर्य आदिमें भगवान् को मानते हैं, वे स्वतः सब जगह, सब प्राणियोंमें भगवान् को मानने लग जायँगे । जो केवल मूर्ति आदिमें ही भगवान् को मानते हैं, उनको ‘प्राकृत (आरम्भिक) भक्त’ कहा गया है * क्योंकि उन्होंने एक जगह भगवान् का पूजन शुरू कर दिया; अतः वे भगवान् के सम्मुख हो गये । परन्तु जो केवल ‘भगवान् सब जगह हैं’—ऐसा कहते हैं, पर उनका कहीं भी आदरभाव, पूज्यभाव, श्रेष्ठ भाव नहीं है, उनको भक्त नहीं कहा गया है; क्योंकि वे ‘भगवान् सब जगह हैं’—ऐसा केवल कहते हैं, मानते नहीं; अतः वे भगवान् के सम्मुख नहीं हुए ।

मूर्तिमें भगवान् का पूजन श्रद्धाका विषय है, तर्कका विषय नहीं । जिनमें श्रद्धा है, उनके सामने भगवान् का महत्त्व प्रकट हो जाते है । उनके द्वारा की गयी पूजाको भगवान् ग्रहण करते हैं । उनके हाथसे भगवान् प्रसाद ग्रहण करते हैं । जैसे करमाबाईसे भगवान् ने खिचड़ी खायी, धन्ना भक्तसे भगवान् ने टिक्कड खाये, मीराबाईसे भगवान् ने दूध पिया आदि-आदि । तात्पर्य है कि श्रद्धा-भक्तिसे भगवान् मूर्तिमें प्रकट हो जाते हैं ।

प्रश्न—भक्तलोग भगवान् को भोग लगते हैं तो भगवान् उसको ग्रहण करते हैं—इसका क्या पता ?

उत्तर—भगवान् के दरबारमें वस्तुकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी प्रधानता है । भावके कारण ही भगवान् भक्तके द्वारा अर्पित वस्तुओं और क्रियाओंको ग्रहण कर लेते हैं । भक्तका भाव भगवान् को भोजन करनेका होता है तो भगवान् को भूख लग जाती हैं । भक्तके भावके कारण भगवान् जिस वस्तुको ग्रहण करते हैं, वह वस्तु नाशवान नहीं रहती, प्रत्युत दिव्य, चिन्मय हो जाती है । अगर वैसा भाव न हो, भावमें कमी हो, तो भी भगवान् भक्तके द्वारा भोजन अर्पण करनेमात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं । भगवान् के सन्तुष्ट होनेमें वस्तु और क्रियाकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी ही प्रधानता है । सन्तोंने कहा है—

भाव भगतकी राबड़ी, मीठी लागे ‘वीर’ ।
बिना भाव ‘कालू’ कहे, कड़वी लागे खीर ॥

हमें एक सज्जन मिले थे । उनकी एक सन्तपर बड़ी श्रद्धा थी और वे उनकी सेवा किया करते थे । वे कहते थे कि जब महाराजको प्यास लगती तो मेरे मनमें आती कि महाराजको प्यास लगी है; अतः मैं जल ले जाता और वे पी लेते । ऐसे ही जो शुद्ध पतिव्रता है, उसको पतिकी भूख-प्यासका पता लग जाता है तथा पतिकी रुचि भोजनके किस पदार्थमें है—इसका भी पता लग जाता है । भोजन सामने आनेपर पति भी कह देता है कि आज मेरे मनमें इसी भोजनकी रुचि थी । इसी तरह जिसके मनमें भगवान् को भोग लगानेका भाव होता है, उसको भगवान् की रुचिका, भूख-प्यासका पता लग जाता है ।

एक मन्दिरके पुजारी थे । उनके इष्ट भगवान् बालगोपाल थे । वे रोज छोटे-छोटे लड्डू बनाया करते और रातके समय जब बालगोपालको शयन कराते, तब उनके सिरहाने वे लड्डू रख दिया करते; क्योंकि बालकको रातमें भूख लग जाया करती है । एक दिन वे लड्डू रखना भूल गये तो रातमें बालगोपालने पुजारीको स्वप्नमें कहा कि मेरेको भूख लग रही है ! ऐसे ही एक और घटना है । एक साधु थे । वे प्रतिवर्ष दीपावलीके बाद (ठण्डीके दिनोंमें) भगवान् को काजू, बादाम, पिस्ता, अखरोट, आदिका भोग लगाया करते थे । एक वर्ष सुखा मेवा बहुत महँगा हो गया तो उन्होंने मूँगफलीका भोग लगाना शुरू कर दिया । एक दिन रातमें भगवान् ने स्वप्नमें कहा कि क्या तू मूँगफली ही खिलायेगा ? उस दिनके बाद उन्होंने पुनः भगवान् को काजू आदिका भोग लगाना शुरू कर दिया । पहले उनके मनमें कुछ वहम था कि पता नहीं, भगवान् भोगको ग्रहण करते हैं या नहीं ? जब भगवान् ने स्वप्नमें ऐसा कहा, तब उनका वहम मिट गया । तात्पर्य है कि कोई भगवान् को भोग लगता है तो उनको भूख लग जाती है और वे उसको ग्रहण कर लेते हैं ।
टिपण्णी—

अचार्यामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।
न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥
(श्रीमद्भागवत ११/२/४७)

(शेष आगेके ब्लॉगमें )

—‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे