।। श्रीहरिः ।।

पञ्चामृत-१

आप जहाँ रहते हैं, वहाँ अपने घरमें रहते हैं, अपने घरमें रहनेका माहात्म्य नहीं है, पर भगवान्‌के दरबारमें रहें तो बड़ा भारी माहात्म्य है । इस घरको तो आपने अपना माना है । पर यह घर पहलेसे भगवान्‌का ही था । अब भी है और पीछे भी भगवान्‌का ही रहेगा । मरोगे तो यह घर साथ थोड़े ही चलेगा । यह तो भगवान्‌का ही है । अतः आजसे आप मान लो कि भगवान्‌के घरमें रहते हैं । साक्षात् भगवान्‌के घरमें ही रहते हो । हरिद्वार आते हैं तो कहते हैं—ओहो ! हरकी पेड़ीयाँ हैं ये तो । वृन्दावन आ गये तो कहते हैं—भगवान्‌की लीलाभूमिमें हैं । अयोघ्यामें आ गये तो भगवान्‌के दरबारमें आ गये । भगवान्‌का दरबार मान लो, भगवान्‌का घर मान लो तो यही घर वृन्दावन हो गया । हरदम यही बात रहे कि हम तो भगवान्‌के घरमें ही रहते हैं और खास लाड़ले हैं हम तो भगवान्‌के । आजसे यह बात मान लो । अपने-अपने घरोंको अपना मत मानो । अरे ! भगवान्‌का ही घर है । अपना घर तो बीचमें माना है । पहले भगवान्‌का था और पीछे भी भगवान्‌का रहेगा । फिर बीचमें अपना कैसे हो गया ? छापा मारा मुफ्तमें ।

एक बातपर और ध्यान देना—जो भी काम करो, भगवान्‌का मानकर करो । खेती करो चाहे घरका काम-धन्धा करो, भोजन करो चाहे भजन करो, कपड़ा धोओ चाहे स्नान करो । शरीर भी भगवान्‌का है, तो भगवान्‌की सेवाके लिये इसका काम करते हैं । खाना-पीना भी भगवान्‌का काम है, काम-धन्धा भी भगवान्‌का ही करते हैं, सब संसारके मालिक भगवान्‌ हैं तो सब शरीरोंके मालिक भी भगवान्‌ हैं । तो शरीरोंका और संसारका काम किसका हुआ ? भगवान्‌का ही हुआ । कैसी मौजकी बात है ! भगवान्‌के दरबारमें रहते हैं और काम-धन्धा भी भगवान्‌का ही करते हैं—दो बात हुईं ।

अब तीसरी बात—घरमें जितनी चीजें हैं ये भी भगवान्‌की ही हैं । घर भगवान्‌का और आप भगवान्‌के तो चीजें किसी दूसरेकी हो सकती हैं क्या ? माताओं और बहिनोंको चाहिये कि उन भगवान्‌की चीजोंको लेकर रसोई बनावें । मनमें समझें कि ओहो ! मैं तो ठाकुरजीको भोग लगानेके लिये प्रसाद बना रहीं हूँ । ठाकुरजीको भोग लगावें । ठाकुरजीको भोग लगाकर घरके जितने लोग हैं, उनको ठाकुरजीके जन (पाहुने) समझकर प्रसाद जिमावें । उन्हें ऐसा माने कि ये सब ठाकुरजीके प्यारे जन हैं । ठाकुरजीके प्यारे लाड़ले बालक हैं । इनको भोजन करा रही हूँ । ठाकुरजीकी सेवा करा रही हूँ । जैसे किसी बच्चेको प्यार करे तो उसकी माता राजी हो जावे कि नहीं ? ऐसे ही भगवान्‌के बालकोंकी सेवा करें तो भगवान्‌ राजी हो जावें । कैसी मौजकी बात है ! भगवान्‌की रसोई बनायी, भगवान्‌को भोग लगाया और भगवान्‌के ही बालकोंको भोग, प्रसाद जिमा दिया । अपने भी भोजन करें तो ठाकुरजीका प्रसाद समझते हुए भोजन करें । ठाकुरजीका प्रसाद है । कैसी मौजकी बात !

तुम्ही निबेदित भोजन करहीं ।
प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं ॥
(मानस २/१२८/१)

(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे