।। श्रीहरिः ।।
 

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
सख्य-रति
          सख्य-रतिमें भक्तका यह भाव रहता है कि भगवान्‌ मेरे सखा हैं और मैं उनका सखा हूँ । वे मेरे प्यारे हैं और मैं उनका प्यारा हूँ । उनका मेरेपर पूरा अधिकार है और मेरा उनपर पूरा अधिकार है । इसलिये मैं उनकी बात मानता हूँ तो उनको भी मेरी बात माननी चाहिये । दास्य-रतिमें तो सेवकको यह संकोच होता है कि कहीं स्वामी मेरेसे नाराज न हो जायँ अथवा उनके सामने मेरेसे कोई भूल न हो जाय ! परन्तु सख्य-रतिमें यह संकोच नहीं रहता; क्योंकि इसमें भगवान्‌से बराबरीका भाव रहता है ।

        सख्यभावके कारण भगवान्‌ श्रीराम हनुमान्‌जीसे सलाह लिया करते हैं । जब विभीषण भगवान्‌ श्रीरामकी शरणमें आते हैं, तब भगवान्‌ इस विषयमें हनुमान्‌ आदिसे कहते हैं‒
सुहृदामर्थकृच्छ्रेषु युक्तं बुद्धिमता सदा ।
समर्थेनोपसंदेष्टुं शाश्वतीं भूतिमिच्छता ॥
(वाल्मीकि युद्ध १७/३३)
       ‘मित्रोंकी स्थायी उन्नति चाहनेवाले बुद्धिमान्‌ एवं समर्थ पुरुषको कर्तव्याकर्तव्यके विषयमें संशय उपस्थित होनेपर सदा ही अपनी सम्मति देनी चाहिये ।’

          अंगद, जाम्बवान् आदिके द्वारा अपना मत प्रकट करनेके बाद हनुमान्‌जी कहते हैं‒
न वादान्नापि संघर्षान्नाधिक्यान्न च कामतः ।
वक्ष्यामि वचनं राजन्‌ यथार्थं राम गौरवात् ॥
(वाल्मिक युद्ध १७/५२)
         ‘महाराज राम ! मैं जो कुछ कहूँगा, वह वाद-विवाद या तर्क, स्पर्धा, अधिक बुद्धिमत्ताके अभिमान अथवा किसी प्रकारकी कामनासे नहीं कहूँगा । मैं तो कार्यकी गुरुतापर दृष्टि रखकर जो यथार्थ समझूँगा, वही बात कहूँगा ।’

         इसके बाद हनुमान्‌जी अपनी सम्मति देते हैं कि विभीषणको स्वीकार कर लेना ही मुझे उचित जान पड़ता है । हनुमान्‌जीके मुखसे अपने मनकी ही बात सुनकर भगवान्‌ प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी सलाह मान लेते हैं ।
वात्सल्य-रति
          वात्सल्य-रतिमें भक्तका यह भाव रहता है कि मैं भगवान्‌की माता हूँ या उनका पिता हूँ अथवा उनका गुरु हूँ और वे मेरे पुत्र हैं अथवा शिष्य हैं । अतः मेरेको उनका पालन-पोषण करना है, उनकी रक्षा करना है ।

        हनुमान्‌जीको भगवान्‌ श्रीरामका पैदल चलना सहन नहीं होता । जैसे माता-पिता अपने बालकको गोदमें लेकर चलते हैं, ऐसे ही रामजीकी कहीं जानेकी इच्छा होते ही हनुमान्‌जी उनको अपनी पीठपर बैठाकर चल पड़ते हैं‒
लिये दुऔ जन पीठि चढ़ाई ॥ 
                                      (मानस ४/४/३)
पृष्ठमारोप्य तौ वीरौ जगाम कपिकुञ्जरः ॥  
                                                  (वाल्मीकि कि ४/३४)
माधुर्य-रति
        माधुर्य-रतिमें भक्तको भगवान्‌के ऐश्वर्यकी विशेष विस्मृति रहती है; अतः इसमें भक्त भगवान्‌के साथ अपनी अभिन्नता (घनिष्ट अपनापन) मानता है ।

          माधुर्य-भाव स्त्री-पुरुषके सम्बन्धमें ही होता है‒यह नियम नहीं है । माधुर्य नाम मधुरता अर्थात्‌ मिठासका है और वह मिठास भगवान्‌के साथ अभिन्नता होनेसे आती है । यह अभिन्नता जितनी अधिक होगी, उतनी ही मधुरता अधिक होगी । अतः दास्य, सख्य तथा वात्सल्य-भावोंमेंसे किसी भी भावकी पूर्णता होनेपर उसमें मधुरता कम नहीं होगी । भक्तिके सभी भावोंमें माधुर्य-भाव रहता है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
सेव्यने सेवा स्वीकार कर ली‒इसी बातसे भक्त अपनेको कृत्यकृत्य मानता है । इतना ही नहीं, अपने इष्टदेवके भक्तोंकी भी सेवाका अवसर मिल जाय तो वह इसको अपना सौभाग्य समझता है । हनुमान्‌जी सनकादिकोंसे कहते हैं‒
ऐहिकेषु च कार्येषु           महापत्सु च सर्वदा
नैव योज्यो राममन्त्रः       केवलं मोक्षसाधकः ।
ऐहिके समनुप्राप्ते        मां स्मरेद् रामसेवकम् ॥
यो रामं संस्मरेन्नित्यं       भक्त्या मनुपरायणः ।
तस्याहमिष्टसंसिद्ध्यै दीक्षितोऽस्मि मुनिश्वराः ॥
वाञ्छितार्थं प्रदास्यामि    भक्तानां राघवस्य तु ।
सर्वथा जागरूकोऽस्मि          रामकार्यधुरंधरः ॥
(रामरहस्योपनिषद् ४/१०-१३)
‘लौकिक कार्योंके लिये तथा बड़ी-से-बड़ी आपत्तियोंमें भी कभी राममन्त्रका उपयोग नहीं करना चाहिये । वह तो संकट आ पड़े तो केवल मोक्षका साधक है । यदि कोई लौकिक कार्य या संकट आ पड़े तो मुझ राम-सेवकका स्मरण करे । मुनीश्वरो ! जो नित्य भक्तिभावसे मन्त्र-जपमें संलग्न होकर भगवान्‌ रामका सम्यक्‌‌ स्मरण करता है, उसके अभीष्टकी पूर्ण सिद्धिके लिये मैं दीक्षा लिये बैठा हूँ । श्रीरघुनाथजीके भक्तोंको मैं अवश्य मनोवाञ्छित वस्तु प्रदत्त करूँगा । श्रीरामका कार्यभार मैंने अपने सिरपर उठा रखा है और उसके लिये मैं सर्वथा जागरूक हूँ ।’

हनुमान्‌जी भगवान्‌ रामकी सेवा करनेमें इतने दक्ष हैं कि भगवान्‌के मनमें संकल्प उठनेसे पहले ही वे उसकी पूर्ति कर देते हैं ! सीताजीकी खोजके लिये जाते समय हनुमान्‌जीको केवल उनका कुशल समाचार लानेके लिये ही कहा गया था । परन्तु सीताजीकी खोजके साथ-साथ उन्होंने इन बातोंका भी पता लगा लिया कि लंकाके दुर्ग किस विधिसे बने हैं, किस प्रकार लंकापुरीकी रक्षाकी व्यवस्था की गयी है, किस तरह सेनाओंसे सुरक्षित है, वहाँ सैनिकों और वाहनोंकी संख्या कितनी है आदि-आदि । जब अशोकवाटिकामें उन्होंने त्रिजटाका स्वप्न सुना‒
सपनें बानर लंका जारी । जातुधान सेना सब मारी ॥
(मानस ५/११/२)
तब इसको हनुमान्‌जी भगवान्‌की प्रेरणा (आज्ञा) समझी । जब उनकी पूँछमें आग लगानेकी बात चली, तब इस बातकी पूरी तरह पुष्टि हो गयी‒
बचन सुनत कपि मन मुसकाना ।
भई सहाय        सारद मैं जाना ॥
                                   (मानस ५/२५/२)
          अतः हनुमान्‌जी भगवान्‌की लंका-दहनरूप सेवाका कार्य भलीभाँति पूरा कर दिया ! इतना ही नहीं, रामजीको लंकापर विजय करनेमें सुगमता पड़े, इसके लिये उन्होंने जलानेके साथ-साथ लंकाकी आवश्यक युद्ध-सामग्रीको भी नष्ट कर दिया, खाइयोंको पाट दिया, परकोटोंको गिरा दिया और विशाल राक्षस-सेनाका एक चौथाई भाग नष्ट कर दिया (वाल्मीकि युद्ध३) । आगे राक्षसोंकी संख्या न बढ़े, इसके लिये उन्होंने भयंकर गर्जना करके राक्षसियोंके गर्भ भी गिरा दिये‒
चलत महाधुनि   गर्जेसि भारी ।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥
                                     (मानस ५/२८/१)
कारण कि भगवान्‌का अवतार राक्षसोंका विनाश करनेके लिये हुआ है‒‘विनाशय च दुष्कृताम्’ (गीता ४/८) और हनुमान्‌जीको भगवान्‌का कार्य ही करना है‒‘राम काज लगि तव अवतारा’ (मानस ४/३०/३)
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, रविवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


    भगवान्‌की मंगलमयी अपार कृपासे भारतभूमिपर अनन्तकालसे असंख्य ऋषि, सन्त-महात्मा, भक्त होते रहे हैं । उनमें भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जी महाराजका विशेष स्थान है । वानर-जैसी साधारण योनिमें जन्म लेकर भी अपने भावों, गुणों और आचरणोंके द्वारा हनुमान्‌जीने प्राणिमात्रका जो परम हित किया है एवं कर रहे हैं, उससे लोग प्रायः परिचित ही हैं । उनके उपकारसे कोई भी प्राणी कभी उऋण नहीं हो सकता । भगवान्‌ श्रीरामके प्रति उनकी जो दास्य-भक्ति है, उसका पूरा वर्णन करनेकी सामर्थ्य किसीमें भी नहीं है । फिर भी समय सार्थक करनेके लिये उसका किंचित्‌ संकेत करनेकी चेष्टा की जा रही है ।

        अपने-आपको सर्वथा भगवान्‌को समर्पित कर देना, उनके मनोभाव, प्रेरणा अथवा आज्ञाके अनुसार उनकी सेवा करना, उनको निरन्तर सुख पहुँचानेका भाव रखना तथा बदलेमें उनसे कभी कुछ न चाहना‒यही भक्तिका स्वरूप है । ये बातें हनुमान्‌जीमें पूर्णरूपसे पायी जाती हैं । वे अपने शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, बल, योग्यता, समय आदिको एकमात्र भगवान्‌का ही समझकर उनकी सेवामें लगाये रखते हैं । उनका पूरा जीवन ही भगवान्‌को सुख पहुँचानेके भावसे ओतप्रोत है ।

       भगवान्‌को श्रद्धा-प्रेमपूर्वक सुख पहुँचानेके भावको ‘रति’ कहते हैं । यह रति मुख्यरूपसे चार प्रकारकी मानी गयी है‒दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य । इनमें दास्यसे सख्य, सख्यसे वात्सल्य और वात्सल्यसे माधुर्य रति श्रेष्ठ है । कारण कि इनमें भक्तको क्रमशः भगवान्‌के ऐश्वर्यकी अधिक विस्मृति होती जाती है और भक्तका संकोच (कि मैं तुच्छ हूँ, भगवान्‌ महान्‌ हैं) मिटता जाता है तथा भगवत्सम्बन्ध (प्रेम) की घनिष्ठता होती जाती है । परन्तु जब इन चारोंमेंसे कोई एक रति भी पूर्णतामें पहुँच जाती है, तब उसमें दूसरी रतियाँ भी आ जाती हैं । जैसे, दास्यरति पूर्णतामें पहुँच जाती है तो उसमें सख्य, वात्सल्य और माधुर्य‒तीनों रतियाँ आ जाती हैं । यही बात अन्य रतियोंके विषयमें भी समझनी चाहिये । कारण यह है कि भगवान्‌ पूर्ण हैं, उनका प्रेम भी पूर्ण है और परमात्माका अंश होनेसे जीव स्वयं भी पूर्ण है । अपूर्णता तो केवल संसारके सम्बन्धसे ही आती है; क्योंकि संसार सर्वथा अपूर्ण है । हनुमान्‌जी में दास्यरतिकी पूर्णता है; अतः उनमें अन्य रतियोंकी कमी नहीं है । उनमें दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य‒चारों रतियाँ पूर्ण रूपसे विद्यमान हैं ।
दास्य-रति
       दास्य-रतिमें भक्तका यह भाव रहता है कि भगवान्‌ मेरे स्वामी हैं और मैं उनका दास (सेवक) हूँ । वे चाहे जो करें, चाहे जैसी परिस्थितिमें मेरेको रखें और मेरेसे चाहे जैसा काम लें, मेरेपर उनका पूरा अधिकार है । इस रतिमें भक्तका शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें किंचिन्मात्र भी अपनापन नहीं रहता । उसमें ‘मैं सेवक हूँ’ ऐसा अभिमान भी नहीं रहता । वह तो यही समझता है कि मैं भगवान्‌की प्रेरणा और शक्तिसे उन्हींकी दी हुई सामग्री उनके ही अर्पण कर रहा हूँ । ऐसे अनन्य सेवाभाववाले भक्तोंको यदि भगवान्‌ सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य‒ये पाँच प्रकारकी मुक्तियाँ* भी दे दें तो वे इनको ग्रहण नहीं करते‒
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे


*भगवान्‌के नित्यधाममें निवास करना ‘सालोक्य’, भगवान्‌के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना ‘सार्ष्टि’, भगवान्‌की नित्य समीपता प्राप्त करना ‘सामीप्य’, भगवान्‌का-सा रूप प्राप्त करना ‘सारूप्य’ तथा भगवान्‌के विग्रहमें समा जाना अर्थात्‌ उनमें ही मिल जाना ‘सायुज्य’ मुक्ति कहलाती है ।

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.–२०७०, शनिवार
हनुमान्‌जीका सेवाभाव


सुमिरि पवनसुत पावन नामू ।
अपने बस   करि   राखे रामू ॥
                                        (मानस, बाल२६/६)
हनुमान्‌ने महान्‌ पवित्र नामका स्मरण करके श्रीरामजीको अपने वशमें कर रखा है । हरदम नाममें तल्लीन रहते हैं । ‘रहिये नाममें गलतान’ रात-दिन नाम जपते ही रहते हैं । हनुमान्‌जी महाराजको खुश करना हो तो राम-नाम सुनाओ, रामजीके चरित्र सुनाओ; क्योंकि ‘प्रभुचरित्र सुनिबेको रसिया’ भगवान्‌के चरित्र सुननेके बड़े रसिया हैं ।

       रामजीने भी कह दिया, ‘धनिक तूँ पत्र लिखाउ’ हनुमान्‌जीको धनी कहा और अपनेको कर्जदार कहा । रामजीने देखा कि मैं तो बन गया कर्जदार, पर सीताजी कर्जदार न बनें तो घरमें ही दो मत हो जायेंगे । इसलिये रामजीका सन्देश लेकर सीताजीके चरणोंमें हनुमान्‌जी महाराज गये । जिससे सीताजी भी ऋणी बन गयीं । ‘बेटा, तूने आकर महाराजकी बात सुनाई । ऐसा सन्देश और कौन सुनायेगा !’ रामजीने देखा कि हम दोनों तो ऋणी बन गये, पर लक्ष्मण बाकी रह गया । जब लक्ष्मणके शक्तिबाण लगा, उस समय संजीवनी लाकर लक्ष्मणजीके प्राण बचाये । ‘लक्ष्मणप्राणदाता च’ इस प्रकार जंगलमें आये हुए तीनों तो ऋणी बन गये, पर घरवाले बाकी रह गये । भरतजीको जाकर सन्देश सुनाया कि रामजी महाराज आ रहे हैं । हनुमान्‌जीने बड़ी चतुराईसे संक्षेपमें सारी बात कह दी ।
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत ।
सीता सहित अनुज प्रभु आवत ॥
                                       (मानस, उत्तर २/५)
        पहले हनुमान्‌जी आये थे तो भरतजीका बाण लगा था, उस समय उन्होंने वहाँकी बात कही कि ‘युद्ध हो रहा है, लक्ष्मणजीको मूर्च्छा हो गई है और सीताजीको रावण ले गया है ।’ अब किसकी विजय हुई, क्या हुआ ? इसका पता नहीं है ? यह सब इतिहास जानना चाहते हैं भरतजी महाराज । तो थोड़ेमें सब इतिहास सुना दिया । ऐसे ‘अपने बस करि राखे रामू ॥’ इनकी सेवासे रामजी अपने परिवारसहित वशमें हो गये । ऐसी कई कथाएँ आती हैं । हनुमान्‌जी महाराज सेवा बहुत करते थे । सेवा करनेवालेके वशमें सेवा लेनेवाला हो ही जाता है ।

          सेवा करनेवाला ऐसे तो छोटा कहलाता है और दास होकर ही सेवा करता है; परन्तु सेवा करनेसे सेवक मालिक हो जाता है और सेवा लेनेवाला स्वामी उसका दास हो जाता है । स्वामीको सेवककी सब बात माननी पड़ती है । संसारमें रहनेकी यह बहुत विलक्षण विद्या है‒सेवा करना ‘सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः’ सेवाका धर्म बड़ा कठोर है । भरतजी महाराज भी यही कहते हैं । ऐसे सेवा-धर्मको हनुमान्‌जी महाराजने निभाया ।

       वे रघुनाथजी महाराजकी खूब सेवा करते थे । जंगलमें तो सेवा करते ही थे, राजगद्दी होनेपर भी वहाँ हनुमान्‌जी महाराज सेवा करनेके लिये साथमें रह गये । एक बारकी बात है । लक्ष्मणजी और सीताजीके मनमें आया कि हनुमान्‌जीको कोई सेवा नहीं देनी है । देवर-भौजाईने आपसमें बात कर ली कि महाराजकी सब सेवा हम करेंगे । सीताजीने हनुमान्‌जीके सामने बात रखी कि ‘देखो बेटा ! तुम सेवा करते हो ना ! अब वह सेवा हम करेंगे । इस कारण तुम्हारे लिये कोई सेवा नहीं है ।’ हनुमान्‌जी बोले‒‘माताजी ! आठ पहर जो-जो सेवा आपलोग करोगे, उसमेंसे जो बचेगी, वह सेवा मैं करूँगा । इसलिये एक लिस्ट बना दो ।’ बहुत अच्छी बात । अब कोई सेवा हनुमान्‌के लिये बची नहीं । हनुमान्‌जी महाराजको बहाना मिल गया । भगवान्‌को जब उबासी आवे तो चुटकी बजा देवें ।

        शास्त्रोंमें, स्मृतियोंमें ऐसा वचन आता है कि उबासी आनेपर शिष्यके लिये गुरुको भी चुटकी बजा देनी चाहिये । इसलिये रघुनाथजी महाराजको उबासी आते ही चुटकी बजा देते थे, यह सेवा हो गयी । अब वह उस कागजमें लिखी तो थी ही नहीं । चुटकी बजानेकी कौन-सी सेवा है ! रात्रिके समय हनुमान्‌जीको बाहर भेज दिया । अब तो वे छज्जेपर बैठे-बैठे मुँहसे ‘सीताराम सीताराम’ कीर्तन करते रहते और चुटकी भी बजाते रहते । न जाने कब भगवान्‌को उबासी आ जाय । अब चुटकी बजने लगे तो रामजीको भी जँभाई आनी शुरू हो गयी । सीताजीने देखा कि बात क्या हो गयी ? घबराकर कौशल्याजीसे कहा और सबको बुलाने लगी । वशिष्ठजीको बुलाया कि रामललाको आज क्या हो गया । वशिष्ठजीने पूछा‒‘हनुमान्‌ कहाँ है ?’ ‘उसको तो बाहर भेज दिया ।’ ‘हनुमान्‌को तो बुलाओ ।’ हनुमान्‌जी ने आते ही ज्यों चुटकी बजाना बन्द कर दिया, त्यों ही भगवान्‌की जँभाई भी बन्द हो गयी । तब सीताजीने भी सेवा करनेकी खुली कर दी । इस प्रकार हृदयमें रामजीको वशमें कर लिया ।

       भरतजीने भी हनुमान्‌जीसे कह दिया ‘नाहिन तात उरिन मैं तोही ।’ तुमने जो बात सुनायी, उससे उऋण नहीं हो सकता । ‘अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ।’ अब भगवान्‌के चरित्र सुनाओ । खबर सुनानेमात्रसे आप पहले ही ऋणी हो गये । चरित्र सुनानेसे और अधिक ऋणी हो जाओगे । भरतजीने विचार किया कि जब कर्जा ले लिया तो कम क्यों लें ? कर्जा तो ज्यादा हो जायगा, पर रामजीकी कथा तो सुन लें । हनुमान्‌जी महाराजको प्रसन्न करनेका उपाय भी यही है और उऋण होनेका उपाय ही यही है कि उनको रामजीकी कथा सुनाओ, चाहे उनसे सुन लो । रामजीकी चर्चासे वे खुश हो जाते हैं । इस प्रकार हनुमान्‌जीके सब वशमें हो गये ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
गीताका तात्पर्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)
       कई वर्ष पहलेकी बात है । बाँकुड़ा जिलेमें अकाल पड़ गया तो गीताप्रेसके संस्थापक, संचालक तथा संरक्षक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने वहाँ कई जगह कीर्तन आरम्भ करवा दिया और लोगोंसे कहा कि वहाँ बैठकर दो घण्टे कीर्तन करो और आधा सेर चावल ले जाओ । पैसे देनेसे वे मांस, मछली आदि खरीदेंगे, पर चावल देनेसे वे चावल खायेंगे ही, इसलिये चावल देना शुरू किया । इस तरह उन्होंने सौ-सवा सौ कैम्प खोल दिये । एक दिन सेठजी वहाँ देखनेके लिये गये । रात्रिमें वे जहाँ ठहरे थे, वहाँ बहुत-से बंगाली लोग इकठ्ठे हुए । उन्होंने सेठजीकी बड़ी प्रशंसा की और कहा कि आपने हमारे जिलेको जिला दिया ! सेठजी बोले कि देखो, तुमलोग झूठी प्रशंसा करते हो, हमने क्या खर्च किया है ? हम मारवाड़से यहाँ आये थे । यहाँ आकर हमने बंगालसे जितना कमाया, वह सब-का-सब दे दें तो आपकी ही वस्तु आपको दी, हमने अपना क्या दिया ? वह भी सब नहीं दिया है । वह सब दे दें और फिर हम मारवाड़से लाकर दें, तब यह माना जायगा कि हमने दिया । इस तरह हमें हरेकको उसीकी वस्तु समझकर उसको देनी है । देकर हम उऋण हो जायँगे, नहीं तो ऋण रह जायगा । अपनेमें सेवकपनेका अभिमान भी नहीं होना चाहिये । घरमें रसोई बनती है तो बच्चे भी खाते हैं, स्त्रियाँ भी खाती हैं, पुरुष भी खाते हैं; क्योंकि उसमें सबका हिस्सा है । इसी तरह कोई भूखा आ जाय, कुत्ता आ जाय, कौआ आ जाय तो उनका भी उसमें हिस्सा है । उनके हिस्सेकी चीज उनको दे दें । इस प्रकार निःस्वार्थभावसे आचरण करनेपर हमारा कल्याण हो जायगा । गीतामें आया है‒
स्वकर्मणा तमभ्यर्चं सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
                                                        (१८/४६)
      ‘अपने कर्तव्य कर्मके द्वारा उस परमात्माका पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।’

      तात्पर्य है कि ब्राह्मण ब्राह्मणोचित कर्मोंके द्वारा पूजन करे, क्षत्रिय क्षत्रियोचित कर्मोंके द्वारा पूजन करे, वैश्य वैश्योचित कर्मोंके द्वारा पूजन करे और शूद्र शूद्रोचित कर्मोंके द्वारा पूजन करे । इस प्रकार सबका पूजन, सबका हित करनेसे अपना कल्याण हो जाता है‒यह बात गीतामें बहुत विलक्षण रीतिसे बतायी गयी है ।

      यदि हम सुख चाहते हैं तो दूसरोंको भी सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है । यदि हम अपने पास कुछ भी नहीं रखते हैं तो दूसरोंको देनेका विधान हमारेपर लागू भी नहीं होता । इन्कमपर टैक्स लगता है । हमने कमाया है तो उसपर टैक्स लगेगा । यदि हमने कमाया ही नहीं तो उसपर टैक्स कैसे लगेगा ? अतः यदि हम अपने पास वस्तुएँ रखते हैं तो उनसे दूसरोंकी सेवा करनी है, दूसरोंका हित करना है । गीताका तात्पर्य सबके कल्याणमें है और सबके कल्याणमें ही हमारा कल्याण निहित है । जो लोगोंको अन्न बाँटता है क्या वह भूखा रहेगा ? क्या उसका हित नहीं होगा ? उसका हित अपने-आप हो जायगा ।

        चाहे धनी हो, चाहे गरीब हो; चाहे बहुत परिवारवाला हो चाहे अकेला हो; चाहे बलवान् हो, चाहे निर्बल हो; चाहे विद्वान् हो, कल्याणमें सबका समान हिस्सा है । जैसे, एक माँके दस बेटे होते हैं तो क्या माँके दस हिस्से होते हैं ? माँ तो सभी बेटोंके लिये पूरी-की-पूरी होती है । दसों बेटे पूरी माँको अपनी मानते हैं । ऐसे ही भगवान्‌ पूरे-के-पूरे हमारे हैं । भगवान्‌के हिस्से नहीं होते । हम सब उनकी गोदमें बैठनेके समान अधिकारी हैं । इसलिये हम सब आपसमें प्रेमसे रहें और एक-दूसरेका हित करें‒यह गीताका सिद्धान्त है‒‘परस्परं भावयन्तः’, ‘सर्वभूतहिते रताः ।’

        प्रश्न‒दान देनेमें, सेवा करनेमें पात्र-अपात्रका विचार करना चाहिये कि नहीं ?

        उत्तर‒अन्न, जल, वस्त्र और औषध‒इनको देनेमें पात्र-अपात्र आदिका विचार नहीं करना चाहिये । जिसको अन्न, जल आदिकी आवश्यकता है, वही पात्र है । परन्तु कन्यादान, भूमिदान, गोदान आदि विशेष दान करना हो तो उसमें देश, काल, पात्र आदिका विशेष विचार करना चाहिये ।

        अन्न, जल, वस्त्र और औषध‒इनको देनेमें यदि हम पात्र-कुपात्रका अधिक विचार करेंगे तो खुद कुपात्र बन जायँगे और दान करना कठिन हो जायगा ! अतः हमारी दृष्टिमें अगर कोई भूखा, प्यासा आदि दीखता हो तो उसको अन्न, जल आदि दे देना चाहिये । यदि वह अपात्र भी हुआ तो हमें पाप नहीं लगेगा ।

       प्रश्न‒दूसरोंको देनेसे लेनेवालेकी आदत बिगड़ जायगी, लेनेका लोभ पैदा हो जायगा; अतः देनेसे क्या लाभ ?

      उत्तर‒दूसरेको निर्वाहके लिये दें, संचयके लिये नहीं अर्थात्‌ उतना ही दें, जिससे उसका निर्वाह हो जाय । यदि लेनेवालेकी आदत बिगड़ती है तो यह दोष वास्तवमें देनेवालेका है अर्थात्‌ देनेवाला कामना, ममता, स्वार्थ आदिको लेकर देता है । यदि देनेवाला निःस्वार्थ-भावसे, बदलेकी आशा न रखकर दे तो जिसको देगा, उसका स्वभाव भी देनेका बन जायगा, वह भी सेवक बन जायगा ! रामायणमें आया है‒
सर्बस दान   दीन्ह सब काहू ।
जेहिं पावा राखा नहिं ताहू ॥
                                         (मानस, बाल १९४/४)

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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