।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
सत्स्वरूपका अनुभव

       एक वस्तुका निर्माण (बनाना) होता है और एक वस्तुका अन्वेषण (ढूँढ़ना) होता है । ढूँढ़नेसे वही चीज मिलती है, जो पहलेसे थी । जो चीज बनायी जाती है, पैदा की जाती है, वह पहले नहीं होती प्रत्युत बननेके बाद होती है । परमात्मतत्त्व पैदा नहीं किया जाता । वह कृतिसाध्य नहीं है, उसमें कर्ता, कर्म, करण आदि कोई भी कारक लागू नहीं होता । करना सब प्रकृतिमें होता है‒‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (गीता ३/२८), ‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारम्’ (गीता १४/१९), ‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (गीता ५/९), ‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’ (गीता ३/२७) । प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें क्रिया है नहीं, कभी हुई नहीं, कभी होगी नहीं, कभी हो सकती नहीं । वह परमात्मतत्त्व तो ज्यों-का-त्यों है । ‘नहीं’ की तरफ जो आकर्षण है, इसके सिवाय उसकी प्राप्तिमें कोई बाधा नहीं है । ‘नहीं’ को सत्ता भी आपने ही दी है । उसकी खुदकी सत्ता तो है ही नहीं । अपने बचपनको आपने छोड़ा है क्या ? किसीने छोड़ा हो तो बता दो कि किस तारीखको बचपन छोड़ा ? बचपन तो अपने-आप छूट गया । यह असत्‌ एक क्षणभर भी नहीं टिकता । इसके बदलनेकी गतिको देखा जाय तो इसको दो बार आप देख नहीं सकते । पहले जैसा देखा, दूसरी बार देखनेसे वह वैसा नहीं रहा, बदल गया । अब आपके खयालमें आये या न आये, यह बात अलग है ।

        जो वर्षमें बदलता है, वही महीनेमें बदलता है, वही दिनमें बदलता है, वही घण्टेमें बदलता है, वही मिनटमें, सेकेण्डमें बदलता है । सिवाय बदलनेके संसारमें और कुछ तत्व ही नहीं है‒‘सम्यक् प्रकारेण सरति इति संसारः’, गच्छति इति जगत्‌’ । जो हरदम बदलता है, उसको तो आप स्थायी मानते हैं और जो कभी बदलेगा नहीं, कभी बदल सकता नहीं, उसकी प्राप्तिको कठिन मानते हैं । जो निरन्तर रहता है, कभी बदलता नहीं, उसकी प्राप्ति कठिन है तो फिर सुगम क्या है ? वह तो स्वतः-स्वाभाविक है, सिर्फ उधर दृष्टि करनी है ।

       आप ध्यान दें, यह जो, ‘संसार है’ ऐसा दीखता है, यह ‘है’-पना क्या संसारका है ? अगर संसारका है तो फिर बदलता क्या है ? सत्‌का तो अभाव होता नहीं और संसारका अभाव प्रत्यक्ष हो रहा है । अवस्थाका, परिस्थितिका, घटनाका, देशका, कालका, वस्तुका, व्यक्तिका, इन सबका परिवर्तन होता है‒यह प्रत्यक्ष हमारे अनुभवकी बात है । स्थूल-से-स्थूल बात बतायें कि आप यहाँ नहीं आये तो भी प्रकाश वैसा ही था और आप आ गये तो भी प्रकाश वैसा ही है । आप आयें या चले जायँ, प्रकाशमें क्या फर्क पड़ता है ? ऐसे ही आप कभी दरिद्री हो जायँ, कभी धनी हो जाँय, कभी बीमार हो जायँ, कभी स्वस्थ हो जायँ, कभी आपका सम्मान हो जाय, कभी अपमान हो जाय, पर आपके होनेपनमें क्या फर्क पड़ता है ? आपका जो होनापन है, सत्ता-स्वरूप है, उसमें आप स्थित रहो‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४/२४) । तात्पर्य है कि आपकी सत्ता निरन्तर रहनेवाली है । अगर आपकी सत्ता नहीं रहेगी तो चौरासी लाख योनियाँ कौन भोगेगा, नरक कौन भोगेगा, स्वर्ग आदि लोकोंमें कौन जायेगा ? आपकी सत्ता निरन्तर ज्यों-की-त्यों है । उसमें कोई परिवर्तन हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं ।

        विचार करें, आपके होनापनमें कौन-से करणकी सहायता है ? किस कारककी सहायतासे आपका होनापन है ? आपका होनापन करण-निरपेक्ष है । अपने होनापनमें रहते हुए भी आप उससे चिपकते हैं, जो 'नहीं' है । वास्तवमें उससे कभी चिपक सकते नहीं ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
वास्तविक तत्त्वका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे माँके हृदयमें अपना दुःख दूर करनेकी अपेक्षा भी बालकका दुःख दूर करनेका विशेष भाव रहता है, ऐसे ही साधकका भी दूसरेका दुःख दूर करनेका विशेष भाव होना चाहिये । दूसरोंको सुख देनेका भाव होनेसे अपनी सुखभोगबुद्धि स्वतः मिटती है ।

ज्ञानयोगमें विवेकपूर्वक विचार करनेसे सुखभोगबुद्धिका नाश हो जाता है । जैसे, प्यासकी जलसे स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । अर्थात्‌ प्यास जलरूप ही है, ऐसे ही सुखासक्तिकी भी संसारसे स्वतन्त्र सत्ता नहीं है अर्थात्‌ संसारकी सुखासक्ति या सुखभोगबुद्धि संसाररूप ही है । जैसे मनुष्यको जलकी प्यास दुःख देती है, जल दुःख नहीं देता, ऐसे ही संसारकी सुखासक्ति ही दुःख देनेवाली है, संसार दुःख नहीं देता । अतः सुखासक्ति ही सम्पूर्ण दुःखोंका, अनर्थोंका, अवगुणोंका, पापोंका मुख्य कारण है‒ऐसा विचार करनेसे संसारमें सुखभोगबुद्धि मिट जाती है ।

भक्तियोगमें साधक ‘सब कुछ भगवान्‌ ही हैं’‒इसको दृढ़तासे मान ले कि वास्तवमें बात यही है । माननेके बाद अनुभव स्वतः हो जायगा । अनुभव न होनेका दुःख जितना तेज होगा, उतनी ही जल्दी अनुभव होगा । जब सब रूपोंमें भगवान्‌ ही हैं तो फिर वे मेरेको क्यों नहीं दीखते ? अगर माँ मौजूद है तो फिर वह मेरेको गोदीमें क्यों नहीं लेती ? इस प्रकार छटपटाहट लगे तो बहुत जल्दी सुखभोगबुद्धिका नाश होकर परमात्माका अनुभव हो जायगा । परन्तु संसारके सम्बन्धसे जितना सुख लिया है, उससे अधिकमात्रामें सुखभोगबुद्धिके न मिटनेका दुःख होना चाहिये ।

अगर साधकमें सुखभोगबुद्धिको मिटानेकी उत्कट अभिलाषा हो, पर उसको मिटानेमें अपनेमें निर्बलताका अनुभव हो और साथ-साथ यह विश्वास हो कि सर्वसमर्थ भगवान्‌की कृपाशक्तिसे ही मेरी यह निर्बलता दूर हो सकती है तो ऐसी स्थितिमें वह भक्त होकर भगवान्‌के परायण हो जाता है । भगवान्‌के परायण होनेपर फिर स्वतः भीतरसे प्रार्थना, पुकार निकलती है, जिससे सुगमतापूर्वक सुखभोगबुद्धि मिट जाती है और एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है‒इसका अनुभव हो जाता है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
वास्तविक तत्त्वका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्माके विषयमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्ठाद्वैत आदि अनेक मतभेद हैं, पर ‘सब कुछ परमत्मा ही हैं’‒यह सर्वोपरि सिद्धान्त है । सम्पूर्ण मत इसके अन्तर्गत आ जाते हैं । साधकोंके मनमें प्रायः यह भाव रहता है कि कोई परमात्माकी सार बात, तात्त्विक बात, बढ़िया बात बता दे तो हम जल्दी परमात्मप्राप्ति कर लें । वह सार बात, तात्त्विक बात, बढ़िया बात, सबका खास निचोड़, निष्कर्ष यही है कि केवल परमात्मा-ही-परमात्मा हैं । ‘मैं’ भी परमात्मा हैं, ‘तू’ भी परमात्मा हैं और ‘वह’ भी परमात्मा हैं अर्थात्‌ परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है ।

अब प्रश्न होता है कि सब कुछ परमात्मा कैसे हुए ? एक अपरा प्रकृति है, एक परा प्रकृति है और एक परा-अपराके मालिक परमात्मा हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्‌‒यह आठ प्रकारकी अपरा (परिवर्तनशील) प्रकृति है । जीव परा (अपरिवर्तनशील) प्रकृति है । अपरा और परा‒ये दोनों प्रकृतियाँ परमात्माका स्वभाव होनेसे परमात्मासे अभिन्न हैं अर्थात्‌ इन दोनोंकी परमात्मासे अलग स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । शरीरकी अपरा प्रकृतिके साथ और शरीरीकी परा प्रकृतिके साथ एकता है । इस प्रकार परमात्मासे अलग किंचिन्मात्र भी कोई सत्ता न होनेसे स्थूल-से-स्थूल पृथ्वीसे लेकर सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अहम्‌तक सब कुछ केवल परमात्मा ही हुए । इसलिये गीतामें अपरा, परा और वासुदेव अथवा क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम‒इन तीनोंका वर्णनका तात्पर्य इनको एक बतानेमें ही है, तीन बतानेमें नहीं है ।

अब प्रश्न होता है कि ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’‒इसका अनुभव कैसे हो ? जगत्‌की स्वतन्त्र सत्ता न होते हुए भी जीवने जगत्‌को स्वतन्त्र सत्ता दी है‒‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७/५) जगत्‌को सत्ता देनेमें मुख्य कारण है‒सुखभोगबुद्धि । जीवकी सुखभोगबुद्धिके कारण ही परमात्मा जीवको जड़ जगत्‌-रूपसे दीखने लग गये और जीव स्वयं भी जगत्‌-रूप हो गया*अतः परमात्मतत्त्वके अनुभवमें सुखभोगबुद्धि ही खास बाधक है ।

अब प्रश्न होता है कि सुखभोगबुद्धि कैसे नष्ट हो ? इसको मिटानेके तीन मुख्य साधन हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगके द्वारा सुखभोगबुद्धि सुगमतासे मिट सकती है । सम्पूर्ण सृष्टि पांचभौतिक होनेसे एक ही है । जैसे एक ही शरीरके अनेक अंग होते हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण शरीर एक ही सृष्टिके अनेक अंग हैं । अतः जैसे मनुष्य अपने शरीरके सभी अंगोंसे अलग-अलग यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी सभी अंगोंका समान रूपसे सुख और हित चाहता है, किसी भी अंगका दुःख और अहित नहीं चाहता, ऐसे ही साधकको सभी प्राणियोंसे यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी समान रूपसे सबके सुख और हितका भाव रखना चाहिये और किसीका भी दुःख और अहित नहीं चाहना चाहिये ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
                                                         __________________
 * त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः     सर्वमिदं     जगत् ।
     मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
                                                    (गीता ७/१३)
        ‘इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण जगत्‌ (प्राणिमात्र) इन गुणोंसे अतीत अविनाशी मुझे नहीं जानता ।’

  † आत्मौपम्येन सर्वत्र   समं  पश्यति  योऽर्जुन ।
      सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
                                                          (गीता ६/३२)
        ‘हे अर्जुन ! जो अपने शरीरकी उपमासे सब जगह अपनेको समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है ।’

 
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
वास्तविक तत्त्वका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे, शरीरके बदलनेपर हम अपना बदलना नहीं देखते । बालकपनसे लेकर आजतक शरीर कितना बदला गया, पर हम कहते हैं कि मैं वही हूँ, जो बालकपनमें था । शरीर बदला गया, स्थान बदल गया, समय बदल गया, वस्तुएँ बदल गयीं, साथी बदल गये, परिस्थिति बदल गयी, अवस्था बदल गयी, क्रियाएँ बदल गयीं, पर सब कुछ बदलनेपर भी स्वयं नहीं बदला । देश, काल आदिमें फर्क पड़ा, पर अपनेमें फर्क नहीं पड़ा । ऐसे ही संसार कितना ही बदल जाय, परमात्मा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं । वस्तुभेद, व्यक्तिभेद और क्रियाभेद होनेपर भी तत्त्वभेद नहीं होता । हमारी दृष्टि उस परमात्मतत्त्वकी तरफ ही रहनी चाहिये । जैसे, कोई व्यापारी कोयला खरीदता और बेचता है, पर उसकी दृष्टि पैसोंपर ही रहती है कि इतने पैसे आ गये ! व्यापारीकी चीजें तो बदल जाती हैं, पर पैसा वही रहता है । ऐसे ही सब व्यवहार करते हुए भी हमारी दृष्टि परमात्मापर ही रहनी चाहिये ।

यह सिद्धान्त है कि जो आदि-अन्तमें नहीं होता, वह वर्तमानमें भी नहीं होता और जो आदि-अन्तमें भी होता है, वह वर्तमानमें भी होता है । संसार पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा, इसलिये संसार नहीं है । परमात्मा पहले भी थे और पीछे भी रहेंगे, इसलिये परमात्मा ही हैं । संसारको सत्यरूपसे देखनेवाले कहते हैं कि परमात्मा है ही नहीं और परमात्माको सत्यरूपसे देखनेवाले कहते हैं कि संसार है ही नहीं ! संसारमें जो ‘है’-पना दीखता है, वह उस परमात्माकी ही झलक है । जैसे रस्सीमें साँप दीखता है तो वास्तवमें ‘है’-पना रस्सीमें है, साँपमें नहीं, पर रस्सीका ‘है’-पना साँपमें दीखता है । ऐसे ही ‘है’-पना परमात्मामें है, संसारमें नहीं है, पर परमात्माका ‘है’-पना संसारमें संसाररूपसे दीखता है । जैसे चनेका आटा फीका होता है, पर जब उसमें चीनी पड़ जाती है, तब उससे बनी बूँदी मीठी लगती है । वह मिठास वास्तवमें चीनीकी ही है, बेसनकी नहीं । ऐसे ही संसारमें जो ‘है’-पना दीखता है, वह संसारका न होकर परमात्माका ही है ।
अगर भक्तियोगकी दृष्टिसे देखें तो सब संसार परमात्मस्वरूप ही है ! भगवान्‌ कहते हैं‒
‘मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ (गीता ७/७)
‘मेरे सिवाय इस जगत्‌का दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी (कारण तथा कार्य) नहीं है ।’
‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७/१९)
‘सब कुछ परमात्मा ही हैं ।’
‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९/१९)
‘सत्‌ और असत्‌ भी मैं ही हूँ ।’
मनसा वचसा दृष्टया गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः ।
अहमेव न मत्तोऽन्यदिति   बुध्यध्वमञ्जसा ॥
                                                  (श्रीमद्भा ११/१३/२४)
‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियाँसे जो कुछ (शब्दादि विषय) ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अतः मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है‒यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें और स्वीकार करके अनुभव कर लें ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, बुधवार
वास्तविक तत्त्वका अनुभव


है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं ।
नहिं सो परगट देखिये,   है सो दिखे नाहिं ॥

कितनी विचित्र बात है कि परमात्मा हैं, पर वे दीखते नहीं और संसार नहीं है, पर वह दीखता है ! इसका कारण यह है कि हमारे पास देखनेकी जो शक्ति है, वह सब संसारकी है । जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी हमारी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण (मन-बुद्धि) हैं । इसलिये उनसे संसार ही दीखेगा, परमात्मा कैसे दीखेंगे ? इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृतिके अंश हैं । प्रकृतिके अंशद्वारा प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको कैसे देखा जा सकता है ? प्रकृतिसे अतीत परमात्मतत्त्वको तो अपने-आपसे अर्थात्‌ स्वयंसे ही देखा जा सकता है; क्योंकि स्वयं परमात्माका अंश है । तात्पर्य है कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि तथा संसार तत्त्वसे एक (नाशवान्‌, जड़) हैं और स्वयं तथा परमात्मा तत्त्वसे एक (अविनाशी, चेतन) हैं । विचार करें कि क्या शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि और परमात्माकी तात्त्विक एकता है ? कदापि नहीं । फिर उनके द्वारा परमात्माको कैसे देखा अथवा प्राप्त किया जा सकता है ? असम्भव बात है । अतः हम स्वयंसे देखेंगे तो परमात्मा दीखेंगे और शरीरसे देखेंगे तो संसार दीखेगा । रहनेवालेसे रहनेवाला ही दीखेगा और बदलनेवालेसे बदलनेवाला ही दीखेगा ।

स्वयंसे परमात्मा कैसे दीखते हैं‒इसपर विचार करें । प्रत्येक मनुष्यको ‘मैं हूँ’‒इस रूपमें अपनी सत्ता- (होनापन-) का अनुभव होता है । ‘मैं हूँ’‒इसमें ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है । अतः ‘मैं’ की ‘नहीं’ के साथ और ‘हूँ’ की ‘है’ के साथ एकता है । ‘हूँ’ और ‘है’ का भेद ‘मैं’-पनके कारण ही है । अगर ‘मैं’-पन न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ ही रहेगा । तात्पर्य यह हुआ कि स्वयंमें जो सत्ता अर्थात्‌ अपना होनापन है, वह वास्तवमें परमात्माका ही है । वह होनापन सब जगह समान रीतिसे स्वतः-स्वाभाविक परिपूर्ण है ।

हमसे यह भूल होती है कि हम परमात्मामें संसारको देखते हैं, जबकि देखना चाहिये संसारमें परमात्माको । ‘नहीं’ में ‘है’ को देखना तो सही है, पर ‘है’ में ‘नहीं’ को देखना गलती है; क्योंकि परमात्मा हैं और संसार नहीं है । इसलिये गीतामें आया है‒
समं   सर्वेषु   भूतेषु     तिष्ठन्तं   परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥
                                                         (१३/२७)
‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है ।’

ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिसमें संसार न बदलता हो । बदलना-ही-बदलना इसका स्वरूप है । परन्तु परमात्मा नहीं बदलनेवाले हैं । संसार रहे अथवा नष्ट हो जाय, वे नित्य-निरन्तर ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं, उनमें कोई फर्क नहीं पड़ता । संसार कभी एक क्षण भी टिकता नहीं और परमात्मतत्त्व कभी एक क्षण भी मिटता नहीं । इसलिये जो बदलनेवाले नाशवान्‌ संसारको न देखकर निरन्तर रहनेवाले अविनाशी परमात्माको देखता है, वही सही देखता है‒‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति’ । परन्तु जो परमात्माको न देखकर संसारको देखता है, वह सही नहीं देखता‒
योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा ॥
                                                     (महा उद्योग ४२/३७)
‘जो अन्य प्रकारका (अविनाशी) होते हुए भी आत्माको अन्य प्रकारका (विनाशी शरीर) मानता है, उस आत्मघाती चोरने कौन-सा पाप नहीं किया अर्थात्‌ सभी पाप कर लिये ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण द्वितीया , वि.सं.–२०७०, मंगलवार
मुक्ति और भक्ति

(गत ब्लॉगसे आगेका)
         जबतक शरीरमें अपनापन है, भोगोंका महत्त्व है, राग है, आसक्ति है, तबतक भगवान्‌का प्रेम प्रकट नहीं होता । बाहरसे भोगोंका त्याग कर देनेपर भी भीतरमें भोगोंके प्रति एक सूक्ष्म आकर्षण रहता है, जिसको ‘रसबुद्धि’ कहते हैं । जबतक यह रसबुद्धि रहती है, तबतक भोग और संग्रहके सुखकी पराधीनता रहती है । इस रसबुद्धिके निवृत्त होनेपर पराधीनता नहीं रहती और स्वाधीनता आ जाती है । इस स्वाधीनताको ही ‘मुक्ति’ कहते हैं । जो पहले प्रकृतिकी परवशताके कारण ‘प्रकृतिस्थ’ था, वह प्रकृतिकी परवशता मिटनेपर ‘स्वस्थ’ हो जाता है । रसबुद्धि निवृत्त होनेपर भी संस्कार-(स्मृति-) रूपसे अहंकारकी एक गन्ध रह जाती है । परन्तु अहंकारकी इस गन्धको मिटानेके लिये कोई उद्योग नहीं करना पड़ता । साधनावस्थामें अपनी प्रक्रिया (साधन, मत) का एक आग्रह रहता है । सिद्ध (मुक्त) होनेपर यह आग्रह तो नहीं रहता, पर जिस साधनसे सिद्धि मिली है, उस साधनका एक महत्त्व (आदर) रहता है । यह महत्त्व ही अहंकारकी गन्ध है, जिसके कारण दार्शनिकोंमें तथा दर्शनोंमें मतभेद रहता है । परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर यह अहंकारकी गन्ध भी निवृत्त हो जाती है और जीवकी परमात्माके साथ सहज एकता प्रकट हो जाती है ।

        ज्ञानयोगमें तो मुक्तिके बाद प्रेम प्राप्त होता है, पर भक्तियोगमें सीधे ही प्रेम प्राप्त हो जाता है । ज्ञानयोगके जिस साधकमें भक्तिके संस्कार होते हैं और जो मुक्तिको ही सर्वोपरि नहीं मानता, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । अतः ऐसे साधकको मुक्ति प्राप्त होनेके बाद प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है* । परन्तु जिस साधकमें भक्तिके विशेष संस्कार नहीं होते और जो मुक्तिको ही सर्वोपरि मानता है, वह सदा मुक्त ही रहता है अर्थात्‌ उसको प्रेमकी प्राप्ति होनी कठिन है । अपने मतका आग्रह और अभिमान प्रेमकी प्राप्तिमें आड़ लगा देता है ।

        जैसे, कोई मनुष्य राकेटमें बैठकर पृथ्वीकी गुरुत्वाकर्षण-शक्तिसे बाहर निकल जाता है, तो वह चन्द्रमाकी गुरुत्वाकर्षण-शक्तिमें प्रवेश कर जाता है अर्थात्‌ उसका आकर्षण चन्द्रमाकी तरफ हो जाता है । ऐसे ही सांसारिक रसबुद्धिकी निवृत्ति होनेपर जब साधक संसारके आकर्षणसे बाहर निकल जाता है, तब उसका आकर्षण स्वतः भगवान्‌की तरफ हो जाता है । संसारके आकर्षणसे बाहर निकलना मुक्ति है और भगवान्‌की तरफ आकर्षण होना ही भक्ति (प्रेम) है । मुक्तिमें एकरस तथा अखण्ड आनन्द है और भक्तिमें प्रतिक्षण वर्धमान तथा अनन्त आनन्द है ।

         प्रश्न‒सभी भेद अहम्‌से पैदा होते हैं, तो फिर अहम्‌का नाश होनेपर प्रेमी-प्रेमास्पदका भेद कैसे सम्भव है ?

        उत्तर‒तत्त्वसे प्रेमी और प्रेमास्पदमें किंचिन्मात्र भी भेद नहीं है । प्रेमी-प्रेमास्पदका भेद तो केवल प्रेमकी लीलाके लिये कल्पित है‒
द्वैतं  मोहाय   बोधात्प्राग्जाते   बोधे   मनीषया ।
भक्त्यर्थं   कल्पितं      द्वैतमद्वैतादपि   सुन्दरम् ॥
पारमार्थिकमद्वैतं       द्वैतं             भजनहेतवे ।
तादृशी यदि भक्तिः स्यात्सा तु मुक्तिशताधिका ॥
         ‘बोधसे पहलेका द्वैत मोहके लिये होता है । परन्तु बोध हो जानेपर भक्तिके लिये (बुद्धिसे) कल्पित द्वैत, अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर (सरस) होता है । वास्तविक तत्त्व तो अद्वैत ही है, पर भजनके लिये द्वैत है । ऐसी यदि भक्ति है तो वह भक्ति मुक्तिसे भी सौगुनी श्रेष्ठ है ।’

         तात्पर्य है कि अहम्‌ मिटनेसे पहलेका द्वैत बन्धनके लिये है और अहम्‌ मिटनेके बादका द्वैत प्रेमके लिये है । ज्ञानमें तो द्वैतका अद्वैत होता है अर्थात्‌ दो होकर एक हो जाते हैं और भक्तिमें अद्वैतका द्वैत होता है अर्थात्‌ एक होकर दो हो जाते हैं । जीव और ब्रह्म एक हो जायँ तो ज्ञान होता है और एक ही ब्रह्म दो रूप हो जायँ तो भक्ति होती है ।
         एक ही अद्वैत तत्त्व प्रेमकी लीलाके लिये श्रीकृष्ण और श्रीजी‒इन दो रूपोंमें प्रकट होता है । दोनोंमें कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद‒इसका पता ही नहीं चलता; क्योंकि दोनों ही प्रेमी हैं और दोनों ही प्रेमास्पद हैं ! मुक्त होनेके बाद प्रेमी भक्त श्रीजीमें लीन हो जाते हैं अर्थात्‌ उनका दर्जा श्रीजीकी तरह हो जाता है । तात्पर्य है कि भगवान्‌में श्रीजीका तथा श्रीजीमें भगवान्‌का जैसा आकर्षण है, वैसा ही आकर्षण भगवान्‌में उन भक्तोंका तथा भक्तोमें भगवान्‌का हो जाता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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* ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
                           समः  सर्वेषु  भूतेषु   मद्भक्तिं  लभते  पराम् ॥ (गीता १८/५४)
          ‘ब्रह्मभूत-अवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी इच्छा करता है । ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला साधक मेरी पराभक्ति- (प्रेम-) को प्राप्त हो जाता है ।’

 
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