।। श्रीहरिः ।।
 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
एकादशीश्राद्ध, इन्दिरा एकादशी-व्रत (सबका)
सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन
 

सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन-प्राप्त सामर्थ्यका सदुपयोग
 
विचार करें ! धन आदि पदार्थोंमें जो सुख दिखलायी देता है एवं हम उनसे सुखकी आशा करते हैं, तो क्या उनमें पूरा सुख है ? क्या उनके सम्बन्धसे कभी दुःख होता ही नहीं ? क्या वे सदा साथ रहेंगे ? क्या उन पदार्थोंके रहते हुए दुःख होता ही नहीं ? ऐसा तो हो ही नहीं सकता; प्रत्युत उन पदार्थोंके सम्बन्धसेउनको अपने माननेसे लोभ-जैसा नरक-द्वाररूप भयंकर दोष उत्पन्न हो जाता है, जो जीतेजी आगकी तरह जलाता ही रहता है और मरनेपर सर्प आदि दुःखमयी योनियों तथा महान् यन्त्रणामय नरकोंमें ले जाता है ।
 
विचार करें ! आप अपने कुटुम्बके लोगोंसे एवं अन्य प्राणियोंसे सुख चाहते हैं, तो क्या वे सभी सुखी हैं ? क्या कभी दुःखी नहीं होते ? क्या वे सभी सबके अनुकूल होते भी हैं ? क्या वे सभी आपके साथ रहते भी हैं ? क्या रहना चाहते भी हैं ? क्या वे सभी आपके साथ रह भी सकते हैं ? क्या पहलेवाले साथी सभी आपके साथ हैं ? क्या उनके मनोंमें और शरीरोंमें परिवर्तन नहीं होता ? क्या उनमेंसे किसीके मनमें किसी प्रकारकी कमीका बोध नहीं होता ? क्या वे सर्वदा सर्वथा पूर्ण हैं ? क्या वे कभी किसीसे कुछ भी नहीं चाहते हैं ? कम-से-कम आपसे तो कुछ नहीं चाहते होंगे ? सोचिये ! जो दूसरोंसे अपने लिये कुछ भी चाहता है, क्या वह दूसरोंकी चाह पूरी कर सकता है ? क्या स्वयं सुख चाहनेवाला औरोंको सुख दे सकता है ?
 
चेत करें ! सबका हर समय वियोग हो रहा है । आयु पल-पलमें घट रही है । मृत्यु प्रतिक्षण समीप आ रही है । ये बातें क्या विचारसे नहीं दिखलायी देती हैं ? यदि कहें कि हाँ दिखलायी देती हैं ।तो ठीक तरहसे क्यों नहीं देखते ? कब देखेंगे ? किसकी प्रतीक्षा करते हैं ? क्या इस मोहमें पड़े रहनेसे आपको अपना हित दिखलायी देता है ? यदि नहीं तो आपका हित कौन करेगा ? किसके भरोसे निश्चिन्त बैठे हैं ? ऐसे कबतक काम चलेगा ? कभी सोचा है; नहीं तो कब सोचेंगे ? आपका सच्चा साथी कौन है ? क्या यह शरीर, जिसे आप मेरा कहते-कहते मैंभी कह देते हैं, आपकी इच्छाके अनुसार नीरोग रहेगा ? क्या जैसा चाहें, वैसा काम देगा ? क्या सदा साथ रहेगा, मरेगा नहीं ? इस ओर आपने अपनी विवेक-दृष्टिसे देखा भी है ? कब देखेंगे ? क्या इस विषयमें अपरिचित ही रहना है ? क्या यह बुद्धिमानी है ? क्या इसका परिणाम और कोई भोगेगा ?
 
चेत करें ! पहले आप जिन पदार्थों और कुटुम्बियोंके साथ रहे हैं, वे सब आज हैं क्या ? एवं आज जो आपके साथ हैं, वे रहेंगे क्या ? वे सब-के-सब सदा साथ रह सकते हैं क्या ? थोड़ा ध्यान देकर विचार करें !
 
    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन’ पुस्तकसे
 
 
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।। श्रीहरिः ।।

 
आजकी शुभ तिथि–
आश्विन कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
दशमीश्राद्ध, एकादशीव्रत कल है
अखण्ड साधन
 
 
(गत ब्लॉगसे आगेका)
स्वाँगके अनुसार खेलनेके लिये एक पुस्तक होती है, पुस्तकोंसे यह सिखाया जाता है कि इतने शब्द आप बोलें, इतने वे बोलें । वैसे ही हमारी पुस्तकोंमें लिखा है कि गृहस्थको यह करना चाहिये, पुरुषको ऐसा करना चाहिये, स्त्रीको ऐसा करना चाहिये, पुत्रको ऐसा करना चाहिये । और यह सब स्वाँग करना है केवल जनताकी प्रसन्नताके लिये । सब लोग कहें‒गृहस्थाश्रम बड़ा उपयोगी है । वाह, वाह, वाह’,‒इस प्रकार ठीक तरहसे उसे करना है, पर वाह-वाह लेनेकी भावनासे नहीं करना है । केवल अपनी आसक्ति मिटानेके लिये, स्वाँगके अनुसार प्रभुकी आज्ञाका पालन करनेके लिये; किंतु इसे सच्चा न माने । इसका नाम कर्मयोग है ।
 
इस तरहसे किया जाय तो स्वत: आसक्ति मिटती है और स्वाभाविक ही राग मिटता है । इसीलिये कहा गया है‒धर्म ते बिरति धर्मका अनुष्ठान करनेसे वैराग्य होता ही है । धर्मको छोड़कर आसक्तिसे विषयोंका सेवन करेंगे तो विषय-सेवनसे कभी वैराग्य हो सकता ही नहीं, सम्भव ही नहीं । अत: उद्देश्य वैराग्यका हो और नियम भी वही रहे । स्वाँगके अनुसार कार्य बढ़िया-से-बढ़िया करना है, पर मानना है उसे स्वाँग । स्वाँगमें कमी आ जाय तो गड़बड़ी और स्वाँगको सच्चा माने तो गड़बड़ी । इसलिये पालन करनेमें कमी आवे नहीं और और सच्चा माने नहीं । इससे क्या होगा ? जैसे स्वाँग पहनकर पैसे कमाये जायँगे, वे भी जायँगे आपके घरमें और स्वाँगरहित हो आप काम करेंगे वे पैसे भी जायँगे आपके घरमें । ये दोनों पैसे ही आपके घरमें जायँगे । वैसे ही आप एकान्तमें बैठकर भजन-ध्यान कर रहे हैं तो अब स्वाँग नहीं, अब तो अपने भगवान्‌की उपासना कर रहे हैं और गृहस्थ बनकर काम कर रहे हैं तो यह संसारमें स्वाँग खेल रहे हैं । पर दोनोंका मतलब भजनसे होगा । इससे भगवान्‌के यहाँ ही दोनोंकी भर्ती होगी और भजन अखण्ड होगा । यदि भजन-ध्यान, कीर्तन-सत्संग तो हुआ भगवान्‌का भजन, उधर और व्यवहार‒-व्यापार हुआ हमारा काम इधर तो यह अखण्ड भजन नहीं होगा । सब काम भगवान्‌का हो ।
तदर्थ कर्म कौन्तेय...............॥ (गीता ३ । १ )
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवापस्यसि ॥
                                                        (गीता १२/१०)
 
भगवान्‌के लिये कर्म करते हैं, प्रभुका ही काम करते हैं तो भजन होगा सभी ओर तथा जहाँ काम छूटेगा, भगवान्‌में मन लगेगा । जैसे रुपयोंके लिये व्यापार करता है तो जहा दूकान बंद किया कि चट रुपयोंका चिन्तन होता है, रुपयोंका विचार होता है, रुपयोंकी गिनती होती है । दूकान बंद हो जाती है, बाजार बंद हो जाता है, फिर भी दीपक जलाकर बैठे हैं । क्या करते है ? रोकड़ जोड़ते है । अब रोकड़ क्यों जोड़ते हो ? तो कहता है--व्यापार किसलिये किया था ? जिसके लिये किया था उसीमें वृत्ति लगती है । इसी प्रकार गृहस्थका काम किसलिये किया ? प्रभु-प्राप्तिके लिये । तो जहाँ काम छूटा कि मन प्रभुमें लग जायगा, चट लग जायगा । व्यापार-कार्य आरम्भ करो तो रुपये कैसे पैदा हों‒यह ध्यान रहेगा, चाहे रुपयोंकी याद रहे या न रहे, पर रुपयोंके लिये काम है । अत: रुपयोंकी अखण्ड स्मृति, रुपयोंका ध्येय अखण्ड रहेगा । वैसे ही यदि प्रभुके लिये ही भजन-ध्यान है और प्रभुके लिये ही गृहस्थाश्रमका काम है तो सब कार्योंमें अखण्डपना है । जो यह अखण्डपना पकड़नेवाला है वह साधक होता है, अखण्डपना रखना साधन होता है और उससे जो अखण्डकी प्राप्ति है वह साध्य होती है । फिर आपसे-आप ये सब हो जायँगे ।
 
इस प्रकार हम भगवान्‌के हैयह कैसे समझें और ‘अखण्ड भजन कैसे हो‒इन दोनों प्रश्रोंका उत्तर हो गया !
 
                                                              नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
 
 
‒ ‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे
 
 
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