।। श्रीहरिः ।।



 
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आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
गोवत्स-द्वादशी
नाम-जपकी महिमा
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(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिसका भगवान्‌के नाममें अटूट श्रद्धा-विश्वास है, अनन्यभाव है, उसका एक ही नामसे कल्याण हो जाता है ।
 
प्रश्न‒जब एक ही नामसे सब पाप नष्ट हो जाते हैं तो फिर बार-बार नाम लेनेकी क्या आवश्यकता है ?
 
उत्तर‒बार-बार नाम लेनेसे ही वह एक आर्तभाववाला नाम निकलता है । जैसे मोटरके इंजनको चालू करनेके लिये बार-बार हैण्डल घुमाते हैं तो हैण्डलको पहली बार घुमानेसे इंजन चालू होगा या पाँचवीं, दसवीं अथवा पंद्रहवीं बार घुमानेसे इंजन चालू होगा‒इसका कोई पता नहीं रहता । परन्तु हैण्डलको बार-बार घुमाते रहनेसे किसी-न-किसी घुमावमें इंजन चालू हो जाता है । ऐसे ही बार-बार भगवन्नाम लेते रहनेसे कभी-न-कभी वह आर्तभाववाला एक नाम आ ही जाता है । अत: बार-बार नाम लेना बहुत जरूरी है ।
 
प्रश्न‒जो मनुष्य नामजप तो करता है, पर उसके द्वारा निषिद्ध कर्म भी होते हैं, उसका उद्धार होगा या नहीं ?
 
उत्तर‒समय पाकर उसका उद्धार तो होगा ही; क्योंकि किसी भी तरहसे लिया हुआ भगवन्नाम निष्फल नहीं जाता । परन्तु नामजपका जो प्रत्यक्ष प्रभाव है, वह उसके देखनेमें नहीं आयेगा । वास्तवमें देखा जाय तो जिसका एक परमात्माको ही प्राप्त करनेका ध्येय नहीं है, उसीके द्वारा निषिद्ध कर्म होते हैं । जिसका ध्येय एक परमात्मप्राप्तिका ही है, उसके द्वारा निषिद्ध कर्म हो ही नहीं सकते । जैसे, जिसका ध्येय पैसोंका हो जाता है, वह फिर ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे पैसे नष्ट होते हों । वह पैसोंका नुकसान नहीं सह सकता; और कभी किसी कारणवश पैसे नष्ट हो जायँ तो वह बेचैन हो जाता है । ऐसे ही जिसका ध्येय परमात्मप्राप्तिका बन जाता है, वह फिर साधनसे विपरीत काम नहीं कर सकता । अगर उसके द्वारा साधनसे विपरीत कर्म होते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि अभी उसका ध्येय परमात्मप्राप्ति नहीं बना है ।
 
साधकको चाहिये कि वह परमात्मप्रासिका ध्येय दृढ़ बनाये और नाम-जप करता रहे तो फिर उससे निषिद्ध क्रिया नहीं होगी । कभी निषिद्ध क्रिया हो भी जायगी तो उसका बहुत पश्चात्ताप होगा, जिससे वह फिर आगे कभी नहीं होगी ।
 
प्रश्न‒जिसके पाप बहुत हैं, वह भगवान्‌का नाम नहीं ले सकता; अत: वह क्या करे ?
 
उत्तर‒बात सच्ची है । जिसके अधिक पाप होते हैं, वह भगवान्‌का नाम नहीं ले सकता ।
वैष्णवे भगवद्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्नि च ।
अल्पपुण्यवतां श्रद्धा यथावन्नैव जायते ॥
 
अर्थात् जिसका पुण्य थोड़ा होता है, उसकी भक्तोंमें, भक्तिमें, भगवत्प्रसादमें और भगवन्नाममें श्रद्धा नहीं होती ।
 
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा’ पुस्तकसे