।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
परमात्मा सगुण हैं या निर्गुण ?



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
द्वैतअद्वैतद्वैताद्वैतविशिष्टाद्वैत आदि जितने भी मत-मतान्तर हैंउन सबसे परिणाममें एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है‒
पहुँचे पहुँचे एक मतअनपहुँचे मत और ।
संतदास घड़ी अरठ कीढुरे एक ही ठौर ॥

अरहटकी घड़ियाँ अलग-अलगऊँची-नीची रहती हैं । जब वे नीचे जाकर पानीसे भरकर ऊपर आती हैंतब अलग-अलग होनेपर भी वे ढुलती एक ही जगह हैं ।

नारायण अरु नगर केरज्जब राह अनेक ।
भावे आवो किधर से,   आगे अस्थल एक ॥

एक ही नगरमें जानेके कई मार्ग होते हैं । कोई पूर्वसे आता हैकोई पश्चिमसे आता हैकोई उत्तरसे आता हैकोई दक्षिणसे आता है । उनसे कोई पूछे कि नगर किस दिशामें है तो पूर्वसे आनेवाला कहेगा कि नगर पश्चिममें है । पश्चिमसे आनेवाला नगरको पूर्वमें बतायेगा । उत्तरसे आनेवाला नगरको दक्षिणमें बतायेगा । दक्षिणसे आनेवाला कहेगा कि नगर उत्तरमें है । सभी अपने-अपने अनुभवको सच्चा बतायेंगे और दूसरेके अनुभवको झूठा बतायेंगे कि तुम झूठ कहते हो,हमने तो खुद वहाँ जाकर देखा है । वास्तवमें सभी सच्चे होते हुए भी झूठे हैं ! पूर्वपश्चिम आदिका भेद तो अपने दृष्टिकोणआग्रहके कारण है । नगर न तो पूर्वमें है, न पश्रिममें है, न उत्तरमें है और न दक्षिणमें है । वह तो अपनी जगहपर ही है । अलग-अलग दिशाओंमें बैठे होनेसे ही वे नगरको अलग-अलग जगहपर बताते हैं ।

हम किसी महात्माके विषयमें पहले कल्पना करते हैं कि वह ऐसा होगाऐसी उसकी दाढ़ी होगीऐसा उसका शरीर होगा आदि-आदि । परन्तु वहाँ जाकर उस महात्माको देखते हैं तो वह वैसा नहीं मिलता । ऐसे ही किसी शहरके विषयमें जैसी धारणा करते हैंवहाँ जाकर देखनेपर वह वैसा नहीं मिलता । जब लौकिक विषयमें भी हम जो धारणा करते हैंवह सही नहीं निकलतीफिर जो सर्वथा असीम,अनन्तअपारअलौकिकगुणातीत परमात्मा हैंउनके विषयमें धारणा सही कैसे निकलेगी ?

उपासना करनेवालोंके लिये ‘भगवान्‌का स्वरूप क्या है’इस विषयमें दो ही बातें हो सकती हैंएक तो भगवान् पहले अपना स्वरूप दिखा देंफिर उसके अनुसार उपासना करें और दूसरीहम पहले भगवान्‌का कोई भी स्वरूप मान लेंफिर उपासना करें । इन दोनोंमें दूसरी बात ही ठीक बैठती है । कारण कि भगवान् पहले अपना स्वरूप दिखा दें,फिर हम साधन करें तो उस स्वरूपका ध्यानवर्णन आदि करनेमें हमारेसे कहीं-न-कहीं गलती हो ही जायगीजिसका हमें दोष लगेगा । भगवान् भी कह सकते हैं कि तुमने भूल क्यों की इसलिये भगवान्‌ने कृपा करके यह नियम बनाया है कि साधक उनके जिस रूपका ध्यान करेंजिस नामका जप करेंउसको वे अपना ही मान लेते हैंक्योंकि भगवान् सब कुछ हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
परमात्मा सगुण हैं या निर्गुण ?



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
जैसे किसी आदमीको कपड़ोंके सहित कहें अथवा कपड़ोंसे रहित कहेंआदमी तो वही हैऐसे ही परमात्माको गुणोंके सहित (सगुण) कहें अथवा गुणोंसे रहित (निर्गुण) कहेंपरमात्मा तो वही (एक ही) हैं । भेद हमारी दृष्टिमें है । परमात्मामें भेद नहीं है । सगुण-निर्गुणका भेद बद्ध जीवकी दृष्टिसे है । मुक्तकी दृष्टिसे तो एक परमात्मतत्त्व ही है‒‘वासुदेव: सर्वम् ।’ बद्धकी दृष्टि वास्तविक नहीं होती,प्रत्युत मुक्तकी दृष्टि वास्तविक होती है । अत: कोई सगुणकी उपासना करे अथवा निर्गुणकीउसकी मुक्तिमें कोई सन्देह नहीं है । कारण कि वह गुणोंकी उपासना नहीं करताप्रत्युत भगवान्‌की उपासना करता है । गुण तो बाँधनेवाले होते हैं*

कोई परमात्माको सगुण मानता है और कोई निर्गुण मानता है तो यह उनका अपना दृष्टिकोण है । इस विषयको समझनेके लिये एक दृष्टान्त है । पाँच अन्धे थे । उन्होंने एक आदमीसे कहा कि भाईहमें हाथी दिखाओ । हम जानना चाहते हैं कि हाथी कैसा होता है उस आदमीने उनको एक हाथीके पास ले जाकर खड़ा कर दिया । एक अन्धेके हाथमें हाथीकी सूँड आयी । दूसरेके हाथमें हाथीका दाँत आया । तीसरेके हाथमें हाथीका पैर आया । चौथेके हाथमें हाथीकी पूँछ आयी । पाँचवेंको हाथीके ऊपर बैठा दिया । उन्होंने अपने-अपने हाथ फेरकर हाथीको देख लिया कि ठीक हैयही हाथी है ! अब वे पाँचों आपसमें झगड़ा करने लगे । एकने कहा कि हाथी तो ओवरकोटकी बाँहकी तरह होता है । दूसरेने कहा कि नहींहाथी तो मूसलकी तरह होता है । तीसरा बोला कि तुम दोनों झूठे होहाथी तो खम्भेकी तरह होता है । चौथेने कहा कि बिलकुल गलत कहते होहाथी तो रस्सेकी तरह होता है । पाँचवाँ बोला कि हाथी तो छप्परकी तरह होता हैयह मेरा अनुभव है । इस तरह सबका वर्णन सही होते हुए भी गलत हैक्योंकि वह एक अंगका वर्णन है,सर्वांगका नहीं । सबने हाथीके एक-एक अंगको हाथी मान लियापर वास्तवमें सब मिलकर एक हाथी है । ऐसे ही सगुण-निर्गुणसाकार-निराकारका झगड़ा है । वास्तवमें सब मिलकर एक ही परमात्माका वर्णन है । एक ही वस्तु अलग-अलग कोणसे देखनेपर अलग-अलग दिखायी देती हैऐसे ही एक ही परमात्मा अलग-अलग दृष्टिकोणसे अलग-अलग दीखते हैं ।

गीतामें आया है कि परमात्मा सत् भी हैंअसत् भी हैं‒‘सदसच्चाहम्' (९ । १९)वे सत्-असत्‌से पर भी हैं‒‘सदसत्तत्परं यत्’ (११ । ३७) और वे न सत् हैंन असत् हैं‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२) । तात्पर्य है कि परमात्माका वर्णन नहीं किया जा सकता । वे सगुण भी हैं,निर्गुण भी हैंसाकार भी हैंनिराकार भी हैं और इन सबसे विलक्षण भी हैंजिसका अभीतक शास्त्रोंमें वर्णन नहीं आया है ! उसका पूरा वर्णन हो सकता भी नहीं । प्राकृत मन,बुद्धिवाणीके द्वारा प्रकृतिसे अतीत तत्त्वका वर्णन हो ही कैसे सकता है ?

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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*सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
  निबध्नन्ति महाबाहो  देहे  देहिनमव्ययम् ॥
                                            (गीता १४ । ५)

          ‘हे महाबाहो ! प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सत्वरज और तम‒ये तीनों गुण अविनाशी देहीको देहमें बाँध देते हैं ।’


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, रविवार
परमात्मा सगुण हैं या निर्गुण ?



शास्त्रमें आया है कि जीवकी उपाधि अविद्या हैजो मलिन सत्त्वप्रधान है और ईश्वर ( सगुण) की उपाधि माया हैजो शुद्ध सत्त्वप्रधान है । इस बातको लेकर ऐसी मान्यता है कि परमात्माका सगुणरूप मायिक हैवास्तविकरूप तो निर्गुण-निराकार ही है । परन्तु वास्तविक दृष्टिसे देखें तो यह मान्यता सही नहीं है । जीवको नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूप ब्रह्म माना गया है‒‘अयमात्मा ब्रह्म’‘तत्त्वमसि’ आदि । विचार करना चाहिये कि जब अविद्यामें पड़ा हुआमलिन सत्त्वकी उपाधिवाला जीव भी स्वरूपसे ब्रह्म ही है तो फिर शुद्धसत्त्वप्रधान ईश्वर नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूप क्यों नहीं है वह मायिक कैसे हो गया ? ईश्वर तो मायाका अधिपति है । सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका) से किसीने कहा कि ईश्वर और जीव‒यें दोनों मायारूपी धेनुके बछड़े हैं । सेठजी बोले कि मायारूपी धेनुका बछड़ा जीव हैईश्वर नहीं । ईश्वर तो साँड़ अर्थात् मायाका अधिपति है । जैसे साँड़ गायोंका मालिक होता हैऐसे ही ईश्वर मायाका मालिक है‒
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥
                                                   (गीता ४ । ६)

माया बस्य जीव अभिमानी । ईस बस्य माया गुन खानी ॥ परबस जीव स्वबस भगवंता ।  जीव  अनेक एक श्रीकंता ॥
                                            (मानस ७ । ७८ । ३४)

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
                                            (मानस १ । ११७ । ४)

भागवतमें आया है‒
वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति  भगवानिति शब्द्यते ॥
                                                   (१ । २ । ११)

 ‘तत्त्वज्ञ पुरुष उस ज्ञानस्वरूप एवं अद्वितीय तत्त्वको ही ब्रह्मपरमात्मा और भगवान्‒इन तीन नामोंसे कहते हैं ।’तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्व निर्गुण-निराकार (ब्रह्म) भी है,सगुण-निराकार (परमात्मा) भी है और सगुण-साकार (भगवान्) भी है ।

गीतामें निर्गुण-निराकारसगुण-निराकार और सगुण-साकार‒तीनोंके लिये ‘ब्रह्म’ शब्द आया है । जैसे,निर्गुण-निराकारके लिये ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता: ॥’ (५ । ११)‘अक्षर ब्रह्म परमम्’ (८ । ३),‘अनादिमत्परं ब्रह्म’ (१३ । १२) आदिसगुण-निराकारके लिये ‘तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥’ (३ । १५)‘ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध स्मृत: ।’ (१७ । २३) आदि और सगुण-साकारके लिये ‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’(५ । १०)‘परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । ' ( १० । १२) पद आये हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे


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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
सफला एकादशी-व्रत (सबका)
मन-बुद्धि अपने नहीं



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
बुद्धिके हम नहीं हैंहमारी बुद्धि है । हमारी बुद्धि है;अत: इसको हम काममें लें या न लें । परन्तु हम बुद्धिके होते तो मुश्किल हो जाती । वृत्तिकी उपेक्षा करो तो आपकी स्वरूपमें स्थिति स्वतःसिद्ध है । परन्तु वृत्तिका निरोध करनेमें बहुत अभ्यास करना पड़ेगा । वृत्तिकी उपेक्षामें कोई अभ्यास नहीं है । गीताका योग क्या है समत्वं योग उच्यते (२ । ४१)  सम नाम परमात्माका है । परमात्मामें स्थित होना गीताका योग है और चित्तवृत्तियोंका निरोध करना योगदर्शनका योग है । आप कहते हैं कि मन नहीं रुकता ! पर मन रोकनेकी आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता है परमात्मामें स्थित होनेकी । जहाँ आप चुप होते हैंवहाँ आप परमात्मामें ही हैं और परमात्मामें ही रहोगेक्योंकि कोई भी क्रियावृत्तिपदार्थघटना,परिस्थिति परमात्माको छोड़कर हो सकती है क्या वस्तु,व्यक्तिपदार्थघटना आदिकी उपेक्षा कर दो तो परमात्मामें ही स्थिति होगी । हाँइसमें नींद-आलस्य नहीं होना चाहिये । नींदमें तो अज्ञान  (अविद्या) में डूब जाओगे । नींद खुलनेपर कहते हैं कि  मेरेको कुछ पता नहीं थापर आप तो उस समय थे ही । अत: नींद-आलस्य तो हो नहीं और चलते-फिरते भी आप चुप हो जायँकुछ भी चिन्तन न करें । यह गीताका योग है । इससे बहुत जल्दी सिद्धि होगी । योगदर्शनके योगमें बहुत समय लगेगा । आप परमात्मामें वृत्ति लगाओगे तो वृत्ति आपका पिण्ड नहीं छोड़ेगीवृत्ति साथ रहेगी । इसलिये मन-बुद्धिकी उपेक्षा करोउनसे उदासीन हो जाओ । अभी लाभ मत देखो कि हुआ तो कुछ नहीं  ! आप इसकी उपेक्षा कर दो । दवाईका सेवन करो तो वह गुण करेगी ही ।

आप खयाल करें । बुद्धि करण है और मैं कर्ता हूँबुद्धि मेरी हैमैं बुद्धिका नहीं हूँयह सम्बन्ध-विच्छेद बहुत कामकी चीज है । आप बुद्धि हो ही नहीं । कुत्ता चिन्तन करता है तो आपपर क्या असर पड़ता है कुत्तेकी बुद्धिके साथ अपना जैसा सम्बन्ध हैवैसा ही अपनी बुद्धिके साथ सम्बन्ध है । आपकी आत्मा सर्वव्यापी है तो कुत्तेमें भी आपकी आत्मा है । फिर आप कुत्तेके मन-बुद्धिकी चिन्ता क्यों नहीं करते कि कुत्तेके मन-बुद्धिको आपने अपना नहीं माना । तात्पर्य यह हुआ कि मन-बुद्धिको अपना मानना ही गलती है ।

जो अलग होता हैवह पहलेसे ही अलग होता है ।सूर्यसे प्रकाशको कोई अलग कर सकता है क्या आप शरीरसे अलग होते हैं तो पहलेसे ही आप शरीरसे अलग हैं । आप मुफ्तमें ही अपनेको शरीरके साथ मानते हैं । शरीरमें आप नहीं हो और आपमें शरीर नहीं है । खुद जड़तामें बैठ गये तो अहंता हो गयी और जड़ताको अपनेमें बैठा लिया तो ममता हो गयी । अहंता-ममतासे रहित हुए तो शान्ति स्वतःसिद्ध हैनिर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति(गीता २ । ७१) ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे



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।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
एकादशी-व्रत कल है
मन-बुद्धि अपने नहीं



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
करण-निरपेक्षको हम कैसे मानें करणकी तरफसे आप चुप हो जाओ । करणको न अच्छा समझोन मन्दा समझो । यदि करणको कर्ता ग्रहण नहीं करे तो कर्ता करणसे स्वत: अलग है । करणसे अपनेको अलग अनुभव करके चुप हो जाओ । अगर हो सके तो सेकेण्डदो सेकेण्ड चुप हो जाओचिन्तन कुछ भी मत करोआत्मसंस्थ मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् (गीता ६ । २५) । कुछ भी चिन्तन नहीं करोगे तो आपकी स्थिति स्वरूपमें होगी । यह बहुत ही बढ़िया साधन है ।

हम कुछ भी चिन्तन नहीं करतेपर चिन्तन हो जाता है तो क्या करें इस विषयमें एक बात विशेष ध्यान देनेकी है कि जब कोई चिन्तन आता हैतब साधक उसको हटाता है । साधन करनेवालोंका प्राय: यही उद्योग रहता है कि दूसरी बात याद आये तो उसको हटाओ और परमेश्वरमें लगाओ ।इस उद्योगसे जल्दी सिद्धि नहीं होतीसाधक जल्दी सफल नहीं होता । सफलताकी कुंजी यह है कि उस चिन्तनकी उपेक्षा कर दो । कोई ऊँची या नीची वृत्ति आये तो उसको महत्त्व मत दो । वृत्तिको न हटाओ और न लगाओ । हटाओ तो वृत्तिको महत्त्व दिया और लगाओ तो वृत्तिको महत्व दिया । वृत्तिको महत्त्व देनेसे जड़ताका महत्त्व आयेगास्वरूपका महत्त्व नहीं रहेगा । यह मार्मिक बात है । आपकी दृष्टि इधर हो जायइसलिये कहता हूँ कि यह बात मेरेको बहुत प्रिय लगी हैबहुत उत्तम लगी है । इससे बहुत लाभ होता है ।

मन-बुद्धिकी उपेक्षा करो । उसमें अच्छा-मन्दा कुछ भी आयेकुछ भी चिन्तन मत करो । जो चिन्तन आ जाय,उसकी उपेक्षा कर दो । उसके साथ विरोध मत करोउसको हटाओ मतपकड़ो मत । यदि यह उपेक्षा करनेकी अटकल आ जाय तो बहुत लाभ होगा । चिन्तनसे उदासीन हो जाओ । न उसको भला समझोन उसको बुरा समझो । भला समझनेसे भी सम्बन्ध जुड़ता है और बुरा समझनेसे भी सम्बन्ध जुड़ता है । जिन्होंने भगवान्‌से प्रेम कियाउनका भी उद्धार हुआ और जिन्होंने भगवान्‌से वैर कियाउनका भी उद्धार हुआ । परन्तु जिन्होंने कुछ भी नहीं कियाउनका उद्धार नहीं हुआ । अत: संसारसे प्रेम करोगे तो फँसोगेवैर करोगे तो फँसोगेक्योंकि प्रेम या वैर करनेसे संसारका सम्बन्ध हो जायगा । संसारका सम्बन्ध तोड़ना ज्ञानयोगकी खास बात है ।

विवेक सत्-असत्‌का निर्णय करता है । अत: विवेकको महत्त्व देकर असत्‌की उपेक्षा कर दो । वृत्तियाँ पैदा होती हैं और नष्ट होती हैंइस कारण ये असत् हैं । जिसका उत्पत्ति-विनाश होता है तथा जिसका आरम्भ और अन्त होता हैवह असत् है । जो असत् हैवह अपने-आप मिटता हैअत: उसको मिटानेका उद्योग करना बिलकुल निरर्थक है । जो उत्पन्न हुआ हैउसका खास काम मिटना ही है । लड़का पैदा हुआ तो उसका आवश्यक काम क्या है आवश्यक काम हैमरना ! वह बड़ा होगा कि नहींउसका ब्याह होगा कि नहीं,उसके बेटा-बेटी होंगे कि नहींइसमें सन्देह हैपर वह मरेगा कि नहींइसमें सन्देह नहीं है । अत: उसका खास काम मरना ही है । इसी तरह वृत्ति पैदा हुई तो उसका खास काम नष्ट होना ही है । इसलिये उसको नष्ट करनेके लिये उद्योग करना,बल लगानाबुद्धि लगानासमय लगाना बिलकुल मूर्खता है और उसको रखनेकी चेष्टा करना भी मूर्खता है । जो चीज रहेगी ही नहींउसको रखनेकी इच्छा करना ही तो महान् दुःख है । परन्तु हमारे भाई चेतते ही नहींक्या करें ! न तो रखनेकी इच्छा करनी है और न हटानेकी इच्छा करनी है;किन्तु अपने कर्तव्यका पालन करना हैजिससे सबको सुख होआराम हो । जो अपने-आप मिट जायगीरहेगी नहीं,उसकी उपेक्षा कर दोदेखो निरपख होय तमाशा । यह बहुत लाभकी चीज है । अत: बुद्धिसे तटस्थ हो जाओ कि हमें मतलब नहीं इससे । तटस्थ हुआ नहीं जाताऐसा मत मानो । अभी ऐसा दीखता है कि इससे हम अलग नहीं हो सकते,पर ऐसी बात है नहीं । इसके लिये युक्ति बतायी कि आप बुद्धिके हो या बुद्धि आपकी है । यह मामूली बात नहीं है,बहुत ही कामकी बात है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे


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