(गत ब्लॉगसे आगेका)
नारदजी महाराज भक्ति-सूत्रमें लिखते हैं‒‘तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति’ सब कुछ भगवान्के अर्पण कर दे, भगवान्को भूलते ही परम व्याकुल हो जाय । जैसे मछलीको जलसे बाहर कर दिया जाय तो वह तड़फड़ाने लगती है । इस तरहसे भगवान्की विस्मृतिमें हृदयमें व्याकुलता हो जाय । भगवान्को भूल गये,गजब हो गया ! उसकी विस्मृति न हो । लगातार उसकी स्मृति रहे और प्रार्थना करे‒‘हे भगवान् ! मैं भूलूँ नहीं, हे ! नाथ ! मैं भूलूँ नहीं ।’ ऐसा कहता रहे और निरन्तर नाम-जप करता रहे ।
(५) इसमें एक बात और खास है‒कामना न करे अर्थात् मैं माला फेरता हूँ, मेरी छोरीका ब्याह हो जाय । मैं नाम जपता हूँ तो धन हो जाय, मेरे व्यापारमें नफा हो जाय । ऐसी कोई-सी भी कामना न करे । यह जो संसारकी चीजोंकी कामना करना है यह तो भगवान्के नामकी बिक्री करना है । इससे भगवान्का नाम पुष्ट नहीं होता, उसमें शक्ति नहीं आती । आप खर्च करते रहते हो, मानो हीरोंको पत्थरोंसे तौलते हो ! भगवान्का नाम कहेंगे तो धन-संग्रह हो जायगा । नहीं होगा तो क्या हो जायगा ? मेरे पोता हो जाय । अब पोता हो जाय । अब पोता हो गया तो क्या ? नहीं हो गया तो क्या ? एक विष्ठा पैदा करनेकी मशीन पैदा हो गयी, तो क्या हो गया ? नहीं हो जाय तो कौन-सी कमी रह गयी ? वह भी मरेगा, तुम भी मरोगे ! और क्या होगा ? पर इनके लिये भगवान्के नामकी बिक्री कर देना बहुत बड़ी भूल है । इस वास्ते ऐसी तुच्छ चीजोंके लिये, जिसकी असीम, अपार कीमत है, उस भगवन्नामकी बिक्री न करें, सौदा न करें और कामना न करें । नाम महाराजसे तो भगवान्की भक्ति मिले,भगवान्के चरणोंमें प्रेम हो जाय, भगवान्की तरफ खिंच जायँ यह माँगो । यह कामना नहीं है; क्योंकि कामना तो लेनेकी होती है और इसमें तो अपने-आपको भगवान्को देना है । आपका प्रेम मिले, आपकी भक्ति मिले, मैं भूलूँ ही नहीं‒ऐसी कामना खूब करो ।
सन्तोंने भगवान्से भक्ति माँगी है । अच्छे-अच्छे महात्मा पुरुषोंने भगवान्के चरणोंका प्रेम माँगा है‒
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ॥
भगवान् शंकर माँगते हैं‒
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥
तो उनके कौन-सी कमी रह गयी ? पर यह माँगना सकाम नहीं है । तीर्थ, दान आदिके जितने पुण्य हैं, उन सबका एक फल माँगे कि भगवान्के चरणोंमें प्रीति हो जाय ।हे नाथ ! आपके चरणोंमें प्रेम हो जाय, आकर्षण हो जाय । भगवान् हमें प्यारे लगें, मीठे लगें । यह कामना करो । यह कामना सांसारिक नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रह्लादजीको इतना कष्ट क्यों पाना पड़ा ?प्रह्लादजीने अपना भजन प्रकट कर दिया । अगर वे प्रकट न करते तो उनको इतना कष्ट क्यों पाना पडता ? इस वास्ते अपना भजन प्रकट न करें । किसीको पता ही न होने दें कि यह भगवान्का भजन करता है । बहनों-माताओंको चाहिये कि वे ऐसी गुप्तरीतिसे भगवान्के भजनमें लग जायँ । देखो, गुप्तरीतिसे किया हुआ भजन बड़े महत्त्वका होता है । पाप भी गुप्त किये हुए बड़े भयंकर होते हैं । भजन भी बड़ा लाभदायक होता है । गुप्त दिया हुआ दान भी बड़ा लाभदायक है । गुप्त दान कौन-सा है ? घरवालोंसे छिपाकर देना चोरी है, गुप्त दान नहीं है । गुप्त दान कौन-सा है ? जिसके घरमें चला जाय, उसे पता नहीं चले कि कहोंसे आया है ? किसने दिया है ? देनेवालेका पता न लगे, यह गुप्त दान होता है । घरवालोंसे छिपाकर देना चोरी है । चोरीका पाप होता है ।
एक बार सुबहके प्रवचनमें मैंने कह दिया कि गरीबोंकी सेवा करो । तो एक भाई बोले‒गरीबोकी सेवा करते हैं तो गरीब तंग कर देते हैं महाराज ! तो मैंने कहा‒सेवा इस ढंगसे करो कि उन्हें मालूम न हो कि किसने सेवा की । वह तो आपकी सेवा है, नहीं तो लोगोंमें झंडा फहराते हैं कि हम देते हैं, देते हैं । भीड़ बहुत हो जायगी, लोग लूट लेते हैं,तंग करते हैं । यह सेवाका भाव नहीं है । केवल वाह-वाह लेनी है और कुछ नहीं है ।
भीतरका भाव हो जाय कि इनके घर कैसे चीज पहुँचे ? किस तरहसे इनकी सहायता हो जाय । कैसे गुप्त दिया जाय, तो उस दानका माहात्म्य है । ऐसे ही गुप्तरीतिसे भजन हो । भगवान्के नामका जप भीतर-ही-भीतर हो । नामजप भीतरसे नहीं होता है तो बोलकर करो, कोई परवाह नहीं;पर भाव दिखावटीपनका नहीं होना चाहिये । कोई देख भी ले, तो वह इतना दोष नहीं है, प्रत्युत दिखावेका भाव महान् दोष है । आप नित्य-निरन्तर भजनमें लग जाओ । कहीं कोई देख भी ले तो सावधान हो जाओ । उसके लिये यह नहीं कि हमारा भजन ही बंद हो जाय ।
(१) भगवान्के होकर भजन करें, (२) भगवान्का ध्यान करते हुए भजन करें, (३) गुप्तरीतिसे करें, (४) निरन्तर करें, क्योंकि बीचमें छूटनेसे भजन इतना बढ़िया नहीं होता । निरन्तर करनेसे एक शक्ति पैदा होती है । जैसे, बहनें-माताएँ रसोई बनाती हैं ? तो रसोई बनावें तो दस-पंद्रह मिनट बनाकर छोड़ दें, फिर घंटाभर बादमें शुरू करें । फिर थोड़ी देर बनावें, फिर घंटाभर ठहरकर करने लगें । इस प्रकार करनेसे क्या रसोई बन जायगी ? दिन बीत जायगा, पर रसोई नहीं बनेगी । लगातार किया जाय तो चट बन जायगी । ऐसे ही भगवान्का भजन लगातार हो, निरन्तर हो, छूटे नहीं, रात-दिन, सुबह-शाम कभी भी छूटे नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
नाम-जपकी खास विधि क्या है ? खास विधि है कि भगवान्के होकर भगवान्के नामका जप करें, ‘होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु’ । अब थोड़ी दूसरी बात बताते हैं । भगवान्के नामका जप करो; पर जपके साथमें प्रभुके स्वरूपका चिन्तन भी होना चाहिये । जैसे‒‘गंगाजी’का नाम लेते हैं तो गंगाजीकी धारा दिखती है कि ऐसे बह रही है । ‘गौमाता’ का नाम लेते हैं तो गायका रूप दिखता है । ऐसे ‘ब्राह्मण’ का नाम लेते हैं तो ब्राह्मणरूपी व्यक्ति दिखता है । मनमें एक स्वरूप आता है । ऐसे ‘राम’ कहते ही धनुषधारी राम दीखने चाहिये मनसे । इस प्रकार नाम लेते हुए मनसे भगवान्के स्वरूपका चिन्तन करो । यह खास विधि है । पातंजलयोगदर्शनमें लिखा है‒‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’, ‘तस्य वाचकः प्रणवः’ भगवान्के नामका जप करना और उसके अर्थका चिन्तन करना अर्थात् नाम लेते जाओ और उसको याद करते जाओ ।
श्रीकृष्णके भक्त हों तो उनके चरणोंकी शरण होकर,‘श्रीकृष्णः शरणं मम’ इस मन्त्रको जपते हुए साथ-साथ स्वरूपको याद करते जाओ । नाम-जपकी यह खास विधि है ।एक विधि तो उसके होकर नाम जपना और दूसरी विधि-नाम जपते हुए उसके स्वरूपका ध्यान करते रहना । कहीं भूल होते ही ‘हे नाथ ! हे नाथ !!’ पुकारो । ‘हे प्रभो ! बचाओ,मैं तो भूल गया । मेरा मन और जगह चला गया, हे नाथ ! बचाओ ।’ भगवान्से ऐसी प्रार्थना करो तो भगवान् मदद करेंगे । उनकी मददसे जो काम होगा, वह काम आप अपनी शक्तिसे कर नहीं सकोगे । इस वास्ते भगवान्के नामका जप और उनके स्वरूपका ध्यान‒ये दोनों साथमें रहें ।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् ।
(गीता ८ । १३)
‘ॐ’ इस एक अक्षरका उच्चारण करे और मेरा स्मरण करे । यह जगह-जगह बात आती है । इस वास्ते भगवान्के नाम-जपके साथ भगवान्के स्वरूपकी भी याद रहे ।
नाम-जप दिखावटीपनमें न चला जाय अर्थात् मैं नाम जपता हूँ तो लोग मेरेको भक्त मानें, अच्छा मानें, लोग मेरेको देखें‒यह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिये । यह भाव होगा तो नामकी बिक्री हो जायगी । नामका पूरा फल नहीं मिलेगा; क्योंकि आपने नामको मान-बडाईमें खर्च कर दिया । इस वास्ते दिखावटीपन नहीं होना चाहिये नाम-जपमें ।नाम-जप भीतरसे होना चाहिये‒लगनपूर्वक । लौकिक धनको भी लोग दिखाते नहीं । उसको भी तिजोरीमें बंद रखते हैं, तो लौकिक धन-जैसा भी यह धन नहीं है क्या ? जो लोगोंको दिखाया जाय । लोगोंको पता लगे तो क्या भजन किया ? गुप्तरीतिसे करे, दिखावटीपन बिलकुल न आवे । नाम-जप भीतर-ही-भीतर करते रहें । एकान्तमें करते रहें,मन-ही-मन करते रहें और मन-ही-मनसे पुकारें, लोगोंको दिखानेके लिये नहीं । लोग देख लें तो उसमें शर्म आनी चाहिये कि मेरी गलती हो गयी । लोगोंको पता लग गया । हमें एक महात्मा मिले थे । उन्होंने एक बात कही ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
(गत ब्लॉगसे आगेका)
गोस्वामीजी कहते हैं‒‘भरोसो जाहि दूसरो सो करो’किसीको दूसरे किसीका भरोसा हो तो वह किया करे । मेरे तो‒‘मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो’रामजीका नामरूपी कल्पतरु कलियुगमें कल्याणरूपसे फलीभूत हो गया । इस कल्पतरुसे जो चाहे, सो ले लो । ‘मेरे तो माय-बाप दोउ आखरहौं, सिसु-अरनि अरो’ मैं बच्चा हूँ,अड़ जाऊँगा तो वह चीज लेकर ही छोड़ूँगा । जैसे माँ-बापके सामने बच्चा अड़ जाय, रोने लग जाय तो जो खिलौना चाहे,वह ले ही लेगा । ऐसे ही मैं शिशु हूँ, अड़ जाता हूँ तो राम-नामसे सब ले लेता हूँ । ऐसा कहते-कहते गोस्वामीजी महाराज हद कर देते हैं ‘संकर साखि जो राखि कहौं’ मनमें बात तो दूजी हो और बनाकर दूजी कहता हूँ तो भगवान् शंकर साक्षी हैं । शंकर भगवान् हमारे गवाह हैं । ‘तो जरि जीह गरो’ जीभ जल जाओ, गल जाओ भले ही परन्तु ‘अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ।’
शंकर भगवान्की गवाही क्यों दी ? एक तो शंकर राम-नाम लेनेवाले हैं । दूसरी बात, जिसको गवाही दिया जाय, उसको पूछते हैं‒देखो भाई ! सच्ची-सच्ची गवाही देना,तो वह कहता है‒हाँ सच्ची कहता हूँ । पूछनेवाला पूछता है‒बिलकुल सच्ची ? हाँ, बिलकुल सच्ची ? अगर सच्ची ! तो उठाओ गंगाजली । ऐसे गोस्वामीजी शंकर भगवान्से कहते हैं‒‘महाराज ! सच्ची गवाही देना, आपके सिरपर गंगाजी हैं ।’
सगरामदासजी कवि कहते हैं‒
(१)
नरतन दीन्हो रामजी सतगुरु दीन्हो ज्ञान ।
ये घोड़ा हाको अबे ओ आयो मैदान ॥
ओ आयो मैदान आग करडी कर सावो ।
हिरदे राखो ध्यान राम रसनासों गावो ॥
कुण देखाँ सगराम कहे आगे काढ़े कान ।
नरतन दीन्हो रामजी सतगुरु दीन्हो ज्ञान ॥
( २)
कहे दास सगराम बड़गड़े घालो घोड़ा ।
भजन करो भरपूर रह्या दिन बाकी थोड़ा ॥
थोड़ा दिन बाकी रह्या कद पोंछोला ठेट ।
अध बीचमें बासो असो तो पड़सो किणरे पेट ॥
पड़सो किणरे पेट पड़ेला भारी फोड़ा ।
कहे दास सगराम बड़गड़े घालो घोडा ॥
तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य-शरीर पा करके खूब भजन कर लो; नहीं तो कुत्तीके, गधीके पेटमें जाना पड़ेगा । इन माताओंका दूध पीकर क्या कुत्तीका दूध पीओगे ? क्या गधीका दूध पीओगे ? इस वास्ते भाइयो ! बहनो ! हमलोगोंपर सन्तोंने कितनी कृपा करके हमको भगवान्का नाम बता दिया है । अब तो चेत करके रात और दिन ‘राम-राम-राम-राम-राम’ करो । रात-दिन भजनमें लग जाओ ।
भाइयो ! जबानकी सावधानी रखो । जबानसे सत्य बोलो, झूठ मत बोलो । सावधानीके साथ इसका हरदम खयाल रखो और हरदम भगवान्का नाम लो । झूठ बोलनेसे जिह्वामें शक्ति नहीं होती । जबानमें शक्ति न होनेपर नाम लेनेपर भी जल्दी सिद्धि नहीं होती ।
‘जिह्वा दग्धा परान्नेन’ पराया हक खानेसे जीभ जल गयी । ‘हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात्’ दूसरोंकी चीज लेनेसे हाथ जल गये । ‘परस्त्रीभिर्मनो दग्धम्’ पर-स्त्रियोंमें मन जानेसे मन जल गया । ‘कथं सिद्धिर्वरानने ।’ तो सिद्धि कैसे हो ? ताकत न जीभमें रही, न हाथमें रही और न मनमें रही । इस वास्ते भाइयो ! बहनो ! बड़ी सावधानीसे बर्ताव करो और भगवान्का नाम लो ।
लोग बड़े-बड़े दुःख पाते हैं और कहते हैं‒‘क्या करें चिन्ता नहीं मिटती, हमारा काम नहीं बनता ।’ अरे भाई,राम-नाम लो न ? मैंने सन्तोंसे सुना है कि राम-नाम है तोपका गोला‒‘जैसे गोला तोप का करत जात मैदान’ जैसे तोपका गोला जहाँ जाता है, वहाँ मैदान हो जाता है, ऐसे ही यह राम-नाम है । यह तो प्रत्यक्ष बात है कि जब मनमें चिन्ता आये तो आधा घंटा, एक घंटा नाम जपो, चिन्ता मिट जायगी ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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।। श्रीहरिः ।।
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हमने एक सन्तकी बात सुनी है । इससे पहले जमानेमें सेकेंड क्लासका रिजर्व होता था । एक सन्तको कहीं जाना था तो गृहस्थ भाइयोंने उनको सेकेंड क्लासमें बैठा दिया । एक सीटपर वे बैठ गये । उनके सामने एक मुसलमान बैठा हुआ था । उसका जब नमाजका समय हुआ तो वह अपना अँगोछा बिछाकर नमाज पढ़ने लगा तो सामने सीटपर बैठे हुए सन्त उठकर खड़े हो गये । जबतक वह नमाज पड़ता रहा, तबतक बाबाजी खड़े रहे और जब वह मुसलमान बैठ गया, तब बाबाजी भी बैठ गये । मुसलमानने पूछा ‒‘महाराज ! आप खड़े क्यों हुए ?’ तो बाबाजीने मुसलमानसे पूछा‒‘तुम खड़े क्यों हुए ?’ मुसलमानने कहा‒‘मैं परवरदिगारकी बन्दगीमें था ।’ तो सन्तने कहा‒‘मैं तुम्हारी बन्दगीमें था ।’ जिस वक्त कोई प्रभुको याद करता है, उस समय उस मनुष्यको मामूली नहीं समझना चाहिये; क्योंकि वह उस समय भगवान्के साथ है ! तुम उस प्रभुको याद कर रहे थे तो मैं तुम्हारी हाजिरीमें खड़ा था ।
कोई जब भगवान्से प्रार्थना करता है, भगवान्का भजन करता है तो मनुष्य चाहे किसी भाषामें प्रार्थना करे;क्योंकि अपनी-अपनी भाषामें अपने-अपने इष्टका नाम अलग-अलग है । परमात्मा तो एक ही है । उसके साथ जिसका सम्बन्ध जुड़ा है तो क्या वह साधारण मनुष्य है ?जैसे, दूसरे मनुष्य होते हैं, वैसे ही वह रहा ? नहीं ।
जैसे, लोगोंमें यह देखा जाता है कि राजकीय कोई बड़ा अधिकारी होता है तो लोगोंपर उसका असर पड़ता है कि ये बड़े अफसर आ गये, ये बड़े मिनिस्टर आ गये । ऐसे ही जो भगवान्में लगे हैं, वे बड़े राजाके हैं, जिससे बड़ा कोई है ही नहीं‒‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥’ (गीता ११ । ४३) वह उस भगवान्का प्यारा है जिसके लिये स्वयं भगवान् कहते हैं‒‘भगत मेरे मुकुटमणि ।’ भगवान् स्वयं जिनके लिये इतना आदर देते हैं, उस सन्तके अगर हमको दर्शन हो जायँ तो कितना अहोभाग्य है हमारा ! परन्तु मनुष्य उसको पहचानता नहीं । सन्तोंका पता नहीं लगता । सच्ची बात है । सन्तोंका क्या पता लगे ?
महाराज, क्या बतावें ? विचित्र, विलक्षण-विलक्षण सन्त होते हैं और साधारण व्यक्ति-जैसे पड़े रहते हैं । पता ही नहीं लगता उनका कि ये क्या हैं; क्योंकि बाहरसे तो वे मामूली दीखते हैं‒
सन्तोंकी गत रामदास जगसे लखी न जाय ।
बाहर तो संसार-सा भीतर उलटा थाय ॥
‘ऐसे निराले सेठको वैसा ही बिरला जानता’ वह इतना मालदार है, उसको तो वैसा ही कोई बिरला जानता है, हर एक नहीं जानता । हर एकको उनकी पहचान नहीं होती । इस प्रकार सज्जनो ! जो नाम हम सबके लिये सुलभ हैं, ‘सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक निबाहू ॥’ सुमिरन करनेमें सबको सुलभ है, चाहे वह किसी वर्णका हो, किसी जातिका हो, किसी आश्रमका हो, किसी देशका हो, किसी वेशमें हो, कोई भी क्यों न हो । वह भी अगर भगवान्के नाममें लग जाय तो नाम सभीको सुख देनेवाला है‒‘सुखद सब काहू’ ‘लोक लाहु परलोक निबाहू’लोक-परलोकमें लाभ देनेवाला है, सब तरहसे निर्वाह करानेवाला है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
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