।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७१, शुक्रवार
गोपाष्टमी
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)

तात्पर्य है कि सगुण होते हुए भी परमात्मा वास्तवमें निर्गुण ही हैं[1] । इसलिये सगुणकी उपासना करनेवाला साधक भी तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है‒

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स  गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय  कल्पते ॥
                                                                    (गीता १४ । २६)

‘जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणोंका अतिक्रमण करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है ।’

सगुणकी उपासना करनेवाला निर्गुण ब्रह्मकी प्राप्तिका पात्र कैसे होता है ? इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं‒

ब्रह्मणो  हि   प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य   च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥
                                              (गीता १४ । २७)

‘ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वतधर्म और ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा (आश्रय) मैं ही हूँ ।’

उपर्युक्त श्लोकमें ‘ब्रह्म तथा अविनाशी अमृतकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह निर्गुण-निराकारकी बात है [ भगवान्‌ने ‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’ (गीता ५ । १०) और ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४) पदोंमें भी अपनेको (सगुण-साकारको) ब्रह्म तथा अव्यक्तमूर्ति कहा है । ] ‘शाश्वतधर्मकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह सगुण-साकारकी बात है [ अर्जुनने भी भगवान्‌को ‘शाश्वतधर्मगोप्ता’ (गीता ११ । १८) कहा है । ] ‘ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा मैं हूँ’‒यह सगुण-निराकारकी बात है [ ध्यानयोगके प्रकरणमें इसी ऐकान्तिक सुखको ‘आत्यन्तिक सुख’ कहा गया है (६ । २१) । ]

इसी प्रकार ग्यारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें भी ‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’ पदोंसे निर्गुण-निराकारकी बात आयी है; ‘त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’ पदोंसे सगुण-निराकारकी बात आयी है; और ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता’ पदोंसे सगुण-साकारकी बात आयी है ।


[1] भागवतमें सगुणको निर्गुण भी माना गया है; जैसे‒

वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते ।
तामसं   द्यूतसदनं   मन्निकेतं   तु  निर्गुणम् ॥
                                                                              (११ । २५ । २५)

‘वनमें रहना सात्त्विक है, गाँवमें रहना राजस है, जुआघरमें रहना तामस है और मन्दिरमें रहना निर्गुण है ।’
सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी ।
    तामस्यधर्मे  या  श्रद्धा      मत्सेवायां   तु  निर्गुणा ॥
                                                         (११ । २५ । २७)

‘आत्मज्ञानमें श्रद्धा सात्त्विक है, कर्ममें श्रद्धा राजस है, अधर्ममें श्रद्धा तामस है और मेरी सेवामें श्रद्धा निर्गुण है ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७१, गुरुवार
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य



(गत ब्लॉगसे आगेका)

वास्तवमें परमात्मा सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि सब कुछ हैं । सगुण-निर्गुण आदि तो उनके विशेषण (नाम) हैं । जो परमात्मा गुणोंसे कभी नहीं बँधते, जिनका गुणोंपर पूरा आधिपत्य होता है, वे ही परमात्मा निर्गुण होते हैं । अगर परमात्मा गुणोंसे बँधे हुए और गुणोंके अधीन होंगे तो वे कभी निर्गुण नहीं हो सकते । निर्गुण तो वे ही हो सकते हैं, जो गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं और जो गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं, ऐसे परमात्मामें ही सम्पूर्ण गुण रह सकते हैं । जो अपनेको गुणोंसे बँधा हुआ मानता है, वह जीव भी परमात्मप्राप्ति होनेपर जब गुणातीत कहा जाता है‒‘गुणातीतः स उच्यते’ (गीता १४ । २५), तो फिर परमात्मा गुणोंसे आबद्ध कैसे हो सकते हैं ? वे तो नित्य ही गुणातीत हैं ।

जब परमात्मा सगुण-साकार रूपसे प्रकट होते हैं, तब उनके करण भी प्राकृत (मायिक) नहीं होते, प्रत्युत चिन्मय होते हैं‒

जन्म कर्म च मे दिव्यम्   (गीता ४ । ९)

चिदानंदमय     देह    तुम्हारी ।
बिगत बिकार जान अधिकारी ॥
                                (मानस २ । १२७ । ५)

भगवान्‌का साकार रूप जीवोंके शरीरोंकी तरह हाड़-मांसका (जड) नहीं होता । जीवोंके शरीर तो पाप-पुण्यमय, नाशवान्, रोगी, विकारी, पाञ्चभौतिक और रज-वीर्यसे पैदा होनेवाले होते हैं, पर भगवान्‌का शरीर पाप-पुण्यसे रहित, अविनाशी, रोगरहित, विकार-रहित, चिन्मय तथा स्वतः प्रकट होनेवाला होता है । जीवोंके शरीरोंकी अपेक्षा देवताओंके शरीर भी दिव्य होते हैं, पर भगवान्‌का शरीर देवताओंके शरीरोंसे भी अत्यन्त विलक्षण, परम दिव्य होता है, जिसको देखनेके लिये देवता भी लालायित रहते हैं‒

देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ।
                                                                  (गीता ११ । ५२)

भगवान्‌के शब्द, स्पर्श, रूप,रस और गन्ध‒सब-के-सब चिन्मय हैं । भगवान्‌का एक नाम ‘आत्मारामगणाकर्षी’ भी है । भगवान्‌के चरणकमलोंकी गन्धसे नित्य-निरन्तर परमात्मतत्त्वमें स्थित रहनेवाले सनकादिकोंके चित्तमें भी हलचल पैदा हो गयी थी‒

                           तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द-
                               किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
                           अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां
                               संक्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥
                                                             (श्रीमद्भा ३ । १५ । ४३)

‘प्रणाम करनेपर उन कमलनेत्र भगवान्‌के चरणकमलके परागसे मिली हुई तुलसी-मञ्जरीकी वायुने उनके नासिका-छिद्रोंमें प्रवेश करके उन अक्षर परमात्मामें नित्य स्थित रहनेवाले ज्ञानी महात्माओंके भी चित्त और शरीरको क्षुब्ध कर दिया ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७१, बुधवार
श्रीसूर्यषष्ठी-व्रत
करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और
करणरहित साध्य



(१५ अक्तूबरके ब्लॉगसे आगेका)

भागवतोक्त हंसगीतामें भगवान् कहते हैं‒
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतसि च प्रजाः ।
जीवस्य देह उभयं   गुणाश्चेतो मदात्मनः ॥
गुणेषु    चाविशच्चित्तमभीक्ष्णं  गुणसेवया ।
गुणाश्च चित्तप्रभवा   मद्रूप उभयं त्यजेत् ॥
                                                              (११ । १३ । २५-२६)

‘यह चित्त विषयोंका चिन्तन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्तमें प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य है, तथापि विषय और चित्त‒ये दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीवके देह (उपाधि) हैं अर्थात् आत्माका चित्त और विषयके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है ।’

‘इसलिये बार-बार विषयोंका सेवन करते रहनेसे जो चित्त विषयोंमें आसक्त हो गया है और विषय भी चित्तमें प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनोंको अपने वास्तविक स्वरूपसे अभिन्न मुझ परमात्मामें स्थित होकर त्याग देना चाहिये ।’

ऐसी ही बात श्रीरामचरितमानसमें भी आयी है‒

सुनहु  तात  माया  कृत  गुन  अरु  दोष  अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥
                                                             (७ । ४१)

प्रश्न‒क्या परमात्माका सगुण-साकार रूप भी करणनिरपेक्ष है ?

उत्तर‒हाँ, परमात्माका सगुण रूप भी वास्तवमें निर्गुण होनेसे करणनिरपेक्ष (करणरहित) ही है[1] । परमात्माको चाहे निर्गुण कहें, चाहे सगुण कहें, वे सत्त्व-रज-तम तीनों गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं । वे सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये गुणोंको स्वीकार करते हैं, पर ऐसा करनेपर भी वे गुणोंसे सर्वथा अतीत ही रहते हैं, गुणोंसे बँधते नहीं[2] । अतः परमात्माके ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूप भी तत्त्वसे निर्गुण ही हैं ।


[1] सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
      असक्तं सर्वभृच्चैव    निर्गुणं गुणभोकृ च ॥
                                                                           (गीता १३ । १४)

‘वे परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियाँसे रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करनेवाले हैं; आसक्तिरहित हैं और सम्पूर्ण संसारका भरण-पोषण करनेवाले हैं तथा गुणोंसे रहित हैं और सम्पूर्ण गुणोंके भोक्ता हैं ।’

[2] त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः      सर्वमिदं   जगत् ।
       मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
                                                                                   (गीता ७ । १३)

‘इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सब जगत् इन गुणोंसे पर अविनाशी मेरेको नहीं जानता ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधन और साध्य’ पुस्तकसे

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