।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७२, सोमवार
विचार करें


विचार करें, परमात्मा अपने हैं कि संसार अपना है ? हमें संसार प्यारा लगता है कि भगवान् प्यारे लगते हैं ? सदा हमारे साथ भगवान् रहेंगे कि संसार रहेगा ? हम परमात्माके अश हैं‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) । फिर हमें परमात्मा प्यारे न लगें, संसार प्यारा लगेयह क्या उचित बात है ? संसार तो हरदम हमसे दूर होता है, क्षणभर भी हमारे साथ नहीं रहता और परमात्मा सदा हमारे साथ रहते हैं, क्षणभर भी दूर नहीं होते । परन्तु हमारी दृष्टि परमात्माकी तरफ नहीं है, प्रत्युत संसारकी तरफ है । हम भगवान्के अंश हैं तो हमें भगवान् प्यारे लगने चाहिये । परन्तु हमें परमपिता परमेश्वर इतने प्यारे नहीं लगते, जितना संसार प्यारा लगता है । संसार साथ रहता नहीं और साथ रहेगा नहीं, रह सकता नहीं । यह एक क्षण भी साथ नहीं रहता, हरदम हमसे दूर हो रहा है । रुपये-पैसे, मकान, स्त्री, पुत्र, परिवार आदि कोई भी साथ रहनेवाला नहीं है और भगवान्का साथ छूटनेवाला नहीं है ।

शरीर-संसारका सम्बन्ध हरदम छूट रहा है । हमारी उम्रमेंसे जितने वर्ष बीत गये, उतना तो संसार छूट ही गयायह प्रत्यक्ष बात है, एकदम सच्ची तथा पक्की बात है । जिस क्षण जन्म हुआ, उसी क्षणसे शरीर-संसार हमसे दूर जा रहे हैं । संसारकी प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण बदल रही है । परन्तु अनन्त युग भले ही बीत जायँ, भगवान् नहीं बदलेंगे । वे कभी हमसे दूर नहीं होंगे, सदा साथ रहेंगे । हम सदा भगवान्के साथ हैं और भगवान् सदा हमारे साथ हैं । जो शरीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता, वह शरीर हमें प्यारा लगता है और लोगोंकी दृष्टिमें हम भगवान्की तरफ चलनेवाले सत्संगी कहलाते हैं ! विचार करें कि वास्तवमें हम सत्संगी हुए कि कुसंगी हुए ? हम सत्का संग करते हैं कि असत्का सग करते हैं ? हमें सत् प्यारा लगता है कि असत् प्यारा लगता है ? कम-से-कम इतनी बातकी तो होश होनी चाहिये कि संसार हमारा नहीं है ।

हम परमात्माके अंश होनेसे मलरहित हैं‘चेतन अमल सहज सुखरासी परन्तु संसारका संग करनेसे मल-ही-मल लगता है, दोष-ही-दोष लगता है, पाप-ही-पाप लगता है । संसारके संगसे लाभ कोई नहीं होता और नुकसान कोई बाकी नहीं रहता । हम शरीरमें कितनी ममता रखते हैं, उसको अन्न-जल देते हैं, कपड़ा देते हैं, आराम देते हैं, उसकी सँभाल रखते हैं, पर शरीर हमारा बिलकुल कायदा नहीं रखता । रातको भूलसे भी शरीरसे कपड़ा उतर जाय तो शीत लग जाता है, बुखार आ जाता है ! रोटी देनेमें एक दिन देरी हो जाय तो शरीर कमजोर हो जाता है ! हम तो रात-दिन शरीरके पीछे पड़े हैं, पर यह हमारी परवाह नहीं करता, हमारी भूलको भी माफ नहीं करता ! फिर भी शरीर हमें प्यारा लगता है और सदा हमारा हित चाहनेवाले भगवान् और उनके भक्त प्यारे नहीं लगते !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, रविवार
प्रवचन‒६


(गत ब्लॉगसे आगेका)
विचार करना चाहिये कि अबतक जो धन कमाया है, मान-बड़ाई प्राप्त की है, यदि आज मर जायँ तो वह क्या काम आयेगी ? केवल अपना अमूल्य समय ही नष्ट किया । इसलिये अब चेत होना चाहिये । संसारका जो अनन्त अपार ऐश्वर्यशाली मालिक (भगवान्‌) हैं, उनसे प्रेम करेंगे तो वे भी हमसे वैसे ही प्रेम करनेको तैयार हैं‒‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।’ (गीता ४ । ११) । रुपयोंके लिये हम कितना ही झूठ, कपट, बेईमानी आदि करें; पर जाते समय रुपये हमसे सम्मति भी नहीं लेते और चुपचाप खिसक जाते है । उन्हें दया ही नहीं आती कि इसने मेरे लिये कितना झूठ, कपट, बेईमानी, अन्याय आदि पाप किये है तो कम-से-कम जाते समय इसकी सम्मति तो ले लें । जो हमारा कोई आदर नहीं करते, उनके हम पीछे पड़े है और जो हमारा आदर करता है, हमसे स्नेह, प्यार करता है, उधर जाते ही नहीं ! भगवान् हमारा कितना ध्यान रखते है । हमारा पालन-पोषण करते है और जीवन-निर्वाहका सब प्रबन्ध करते है, चाहे हम उन्हें मानें या न मानें । वे तो प्राणिमात्रके सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) । इसलिये आज ही निश्चय कर लें कि अब एक भगवान्की तरफ ही चलना है, उन्हींकी खोज करनी है । फिर कल्याणमें सन्देह नहीं । एकमात्र भगवान्की तरफ चलनेपर ये जितने बड़े-बड़े वैभव हैं, वे हमारी सेवा करनेके लिये तैयार हो जायँगे । बड़े-बड़े राजा-महाराजा और देवता भी भगवद्भक्तके दास होते है और उसके दर्शनसे अहोभाग्य मानते है । वैसा हम सभी हो सकते है । संसारका वैभव इकट्ठा करनेमें तो कोई स्वतन्त्र नहीं है, पर भगवान्को प्राप्त करनेमें हम सब स्वतन्त्र है । आश्चर्यकी बात है कि स्वतन्त्रतासे तो विमुख हो रहे है और परतन्त्रताको दौड़-दौड़कर ले रहे है ! इसलिये जो इस समस्त संसारका मालिक है, इसका उत्पादक, प्रकाशक और आधार है; जिसके एक अंशमें यह सारी सृष्टि स्थित है, उन अपने परमप्रियतम भगवान्से ही सम्बन्ध जोड़ लें । उन्हें चाहे माँ बना लें, चाहे पिता बना लें, चाहे पुत्र बना लें, चाहे भाई बना लें, चाहे मित्र बना लें और चाहे अर्जुनके समान सारथि बना लें, वे सब कुछ बननेको तैयार हैं । अर्जुन उनसे कहते हैं कि मेरा रथ दोनों सेनाओंके बीच खड़ा करो तो वे वैसा ही कर देते है । कितनी विचित्र बात है ! इस प्रकार आज्ञाका पालन तो आजकल बेटा भी नहीं करता । ऐसे अपने प्यारे प्रभुको छोड़कर निष्ठुर संसारकी तरफ चलना कहाँकी बुद्धिमानी है ?

अहो बकी यं स्तनकालकूटं   जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥
                                           (श्रीमद्भा ३ । २ । २३)

‘अहो ! इस पापिनी पूतनाने जिसे मार डालनेकी इच्छासे अपने स्तनोंपर लगाया हुआ कालकूट विष पिलाकर भी वह गति प्राप्त की, जो धात्रीको मिलनी चाहिये, उसके अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरणमें जायँ !
नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.२०७२, शनिवार
रक्षाबन्धन, श्रावणीकर्म (यज्ञोपवीत पूजन)
प्रवचन‒६


(गत ब्लॉगसे आगेका)
इस संसारको उत्पन्न करनेवाला भी वही है । इसका आधार और मालिक भी वही है । यह संसार उत्पन्न और नष्ट होनेवाला है, जिसमें प्रवाहरूपसे निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । ऐसे संसारको महत्त्व देता है वह जीव, जो भगवान्का अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७) । भगवान् नित्य-निरन्तर रहनेवाले है । ऐसे ही उनका अंश (जीव) भी नित्य-निरन्तर रहनेवाला है । वह जीव नित्य-निरन्तर बदलनेवाले संसारको आदर देता है‒यह बड़े आश्चर्यकी बात है !

भगवान्ने जड़ संसारको अपनी ‘अपरा प्रकृति’ और जीवको अपनी ‘परा प्रकृति’ बतलाया है (गीता ७ । ४-) । परन्तु जीवने जगत्को धारण कर लिया‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ अर्थात् उसीमें उलझ गया । यदि यह जगत्को धारण न करे तो फिर जगत् नहीं रहेगा, अपितु एक भगवान् ही रह जायँगे‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९) । परन्तु जीव संसारको अपना मानकर उसीमें उलझ जाता है । इतना ही नहीं, संसारके अत्यन्त तुच्छ अंश रुपयोंको लेकर वह अपनेको बड़ा मानने लग जाता है । कितने आश्चर्यकी बात है ! थोड़ी विद्या, थोड़ी शक्ति लेकर वह घमण्ड करने लग जाता है । हिरण्यकशिपुने प्रह्लादजीसे पूछा कि तुम्हारा कौन है ? तो उन्होंने उत्तर दिया कि जिसके थोड़े-से अंशको लेकर आपने त्रिलोकीपर विजय प्राप्त कर ली, वही मेरा है । मनुष्य तुच्छ-तुच्छ वस्तुओंको लेकर अपनेमें बड़प्पनका अनुभव करता है । परन्तु वास्तवमें उसका बड़प्पन परमात्माको प्राप्त करनेमें ही है । परमात्माकी तरफ चलनेकी रुचि भी हो जाय तो मनुष्य बड़ा हो जाता है । जिसकी भगवान्में रुचि हो गयी है, उसके सामने संसारमात्रका वैभव भी कुछ नहीं है । भगवान् कहते हैं‒

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।
                                              (गीता ६ । ४४)

अर्थात् परमात्मतत्त्वका जिज्ञासु भी शब्दब्रह्म (वेदों) को अतिक्रमण कर जाता है । वेदोंके अध्ययन, यज्ञ, तप, दान आदिके जो फल बतलाये गये है, उन सम्पूर्ण फलोंको वह अतिक्रमण कर जाता है और सनातन परमपदको प्राप्त कर लेता है (गीता ८ । २८) । ऐसा करनेका अवसर मनुष्यशरीरमें ही है, जो हमें मिला हुआ है । परन्तु फिर भी तुच्छ वस्तुओंमें फँसे हुए है‒यह कितने आश्चर्यकी बात है ! तुच्छ वस्तुओंसे कबतक काम चलेगा ? सदा हमारे साथ न धन रहेगा, न कुटुम्ब रहेगा, न मान-बड़ाई रहेगी, न यह अवस्था रहेगी, न शरीर रहेगा; क्योंकि ये रहनेवाली वस्तुएँ हैं ही नहीं ।

अजानन्  दाहात्म्यं  पतति  शलभो दीपदहने
स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नाति पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह   गहनो  मोहमहिमा ॥
                                            (भर्तहरिवैराग्यशतक)

‘जलनेसे होनेवाले दुःखको न जाननेके कारण ही पतंगा दीपमें गिरता है । न जाननेके कारण ही मछली वंसीमें लगे मांसके टुकड़ेको खा लेती है और फँस जाती है । परन्तु हमलोग जानते हुए भी विपत्तिके जटिल जालमें फँसानेवाली कामनाओंको, भोगोंको नहीं छोड़ते । अहो ! यह मोहकी बड़ी गहन, विचित्र महिमा है !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, शुक्रवार
प्रवचन‒६


संसारमें हम देखते है कि प्रत्येक वस्तुका कोई उत्पादक होता है, कोई मालिक होता है । यह जो पृथ्वी, समुद्र, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, आकाश आदि दीखते है और विभिन्न प्रकारके प्राणी, जीव-जन्तु, दीखते है, इस (सृष्टि) का भी एक मालिक है । वह सबका मालिक है, पर उसका कोई मालिक नहीं है । वह सबका उत्पादक है, पर उसका कोई उत्पादक नहीं है । उसीको परमात्मा कहते है । आश्चर्यकी बात यह है कि उस परमात्माकी रची हुई वस्तुओंमें तो मनुष्य आकर्षित होते है, उन्हें अपना मानते है । उन्हें महत्त्व देते है, उनसे अपनेमें बड़प्पनका अनुभव करते है, पर उनका जो उत्पादक है, मालिक है, उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते !

भगवान् अर्जुनसे कहते है‒

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि ॥
                                        (गीता ११ । ७)

‘हे गुडाकेश ! अब इस मेरे शरीरमें तू एक जगह स्थित चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता है, वह (भी) देख ।’

तात्पर्य यह है कि चराचरसहित पूरा-का-पूरा जगत् तू मेरे शरीरमें केवल एक ही जगह देख, और अभी देख‒‘पश्याद्य’ और कहाँ देख ‘मम देहे’ अर्थात् मेरे शरीरमें देख । अर्जुन भी कहते है कि ‘मैं समूर्ण देवोंको आपके शरीरमें देखता हूँ’‒‘पश्यामि देवास्तव देव देहे’ (११ । १५) । और संजय भी कहते है कि अर्जुनने ‘सम्पूर्ण जगत्को भगवान्के शरीरमें एक जगह स्थित देखा‒‘अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥’ (११ । १३) । ‘गुडाका’ नाम निद्राका है और उसके मालिक (निद्राको जीतनेवाले) को गुडाकेश कहते है । अर्जुनको ‘गुडाकेश’ कहनेका तात्पर्य है कि आलस्यरहित होकर बड़ी सावधानीसे देख । और कुछ देखना चाहता है तो वह भी देख‒‘यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि’ । भगवान् उसके मनकी बात जानते हैं कि वह और क्या देखना चाहता है । अर्जुन देखना (जानना) चाहते थे कि हमें युद्ध करना चाहिये या नहीं करना चाहिये और जीत हमारी होगी या उनकी होगी‒‘न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।’ (गीता २ । ६)

दसवें अध्यायके अन्तमें भगवान्ने कहा था कि अर्जुन ! बहुत जाननेसे क्या होगा; मैं अपने एक अंशसे सम्पूर्ण जगत्को धारण करके स्थित हूँ । मैं तेरे सामने बैठा हूँ; अतः तुझे मेरी विभूतियोंको बहुत जाननेकी क्या जरूरत है, तू मेरी तरफ देख । तभी अर्जुनको वह रूप देखनेकी इच्छा हुई‒‘द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरम्’ (११ । ३) तो यह संसार भगवान्के एक अंशमें स्थित है ।

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‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७२, गुरुवार
प्रवचन‒५


(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनुष्यने संसारमें ‘यह अपना है और यह अपना नहीं है’‒इस प्रकार दो विभाग किये हुए है । वह जिसे अपना मानता है, उसीकी चिन्ता उसे होती है । जिस मकानको हमने अपना मान लिया है, उसीकी चिन्ता होती है । जिस मकानको अपना नहीं माना है, वह धराशायी हो जाय तो भी उसकी चिन्ता नहीं होती । वास्तवमें चिन्ता मकानकी नहीं, अपितु अपनेपनकी होती है । संसारमें प्रतिदिन कई मनुष्य मरते हैं, कई पशु-पक्षी मरते हैं, पर उनकी चिन्ता हमें नहीं होती, जबकि आरम्भको देखा जाय तो एक परमात्मासे ही सबकी उत्पत्ति होनेसे सब भाई-बन्धु ही है ! अतः जिन-जिनको अपना माना है, उन-उनकी ही चिन्ता होती है । जिन्हें अपना नहीं माना है, वे मर जायँ तो भी चिन्ता नहीं होती । जबतक लड़कीका विवाह नहीं होता, तभीतक आपको उसकी चिन्ता रहती है । विवाह होनेके बाद वह लड़की आपके पास बैठी हो, तब भी उसकी चिन्ता नहीं होती । लड़की भी वही है और आप भी वही है । लड़कीके प्रति आपका वात्सल्य भी वही है । पर अब चिन्ता इसलिये नहीं होती कि अब उसे आप अपनी नहीं मानते । संसार भी कन्याके समान है । इसे भगवान्के हाथ सौंप दें, तो सारी चिन्ताएँ मिट जायँ । भगवान् भी राजी हो जायँ, आप भी राजी हो जायँ और सृष्टि भी राजी हो जाय !

स्वयं नित्य-निरन्तर रहनेवाला है और संसार प्रतिक्षण बदलनेवाला है । अतः वास्तवमें संसारसे सम्बन्ध न होनेपर भी उससे जो सम्बन्ध मान रखा है, उसमें खास कारण यह है कि उससे सुख लेते हैं और उससे सुखकी आशा करते है‒यही खास बीमारी है । इस बीमारीको मिटानेका उपाय है‒संसारसे सुख न लें, अपितु उसे सुख दें । बस, इतनी ही बात है । संसारके पदार्थोंका उपयोग भोगबुद्धिसे न करें, अपितु शरीर-निर्वाहमात्रके लिये करें । संसारसे जो सुख लेना चाहते है, वह (सुख) दुःखोंका कारण है‒‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।’ (गीता ५ । २२) । दुःखोंके कारणको तो छोड़े नहीं और दुःखसे छूटना चाहें‒यह कैसे होगा ? इसलिये यदि दुःखोंसे छूटना हो तो सुख लेनेकी इच्छा छोड़नी ही पड़ेगी, नहीं तो दुःखोंसे कभी छूट नहीं सकते । वहम तो सुखका रहेगा, पर पाना पड़ेगा दुःख । इसमें किंचिन्मात्र सन्देह नहीं । अतएव घरसे लेकर बाहरतक सबको सुख पहुँचाना है । सबको सुखी करना तो हमारे वशकी बात नहीं है, पर सबको सुखी करनेका भाव बनाना हमारे वशकी बात है । यदि साधकके हृदयमें प्राणिमात्रके हितका भाव रहेगा तो उसे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति सुगमतापूर्वक हो जायगी‒

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
                                                 (गीता १२ । ४)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७२, बुधवार
पुत्रदा एकादशी-व्रत (सबका)
प्रवचन‒५


(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारिक वस्तुएँ केवल सदुपयोग करनेके लिये हैं, आश्रय लेनेके लिये नहीं । आश्रय लेनेसे ही उनका दुरुपयोग होता है । रुपये खर्च करनेके लिये ही है । अपने या दूसरेके लिये खर्च करनेके अतिरिक्त रुपये और किस काम आयँगे ? रुपयोंके संग्रहसे अभिमान, आसक्ति, प्रमाद आदि ही बढ़ते है, पर उनका संग्रह करके मनुष्य फँस जाता है । इसी प्रकार संसारके सब पदार्थ सदुपयोग करनेके लिये ही है । उन्हें अपने लिये मानकर मनुष्य मुफ्तमें बँध जाता है । पदार्थ तो अपने पास सदा रहते नहीं, केवल बन्धन-बन्धन रह जाता है ।

सम्बन्ध सदा दोमें ही होता है । पिता-पुत्र, पति-पत्नी आदिमें दोनों ओरसे (दोतरफा) सम्बन्ध होता है अर्थात् पिता कहता है कि यह मेरा पुत्र है और पुत्र कहता है कि यह मेरा पिता है, इत्यादि । परंतु शरीर, धन-सम्पत्ति आदि जड़ वस्तुओंके साथ सम्बन्ध केवल हमारी ओरसे ही (एकतरफा) होता है अर्थात् हम ही कहते है कि शरीर मेरा है, धन-सम्पत्ति मेरी है; पर शरीर, धन-सम्पत्ति आदि वस्तुएँ कभी हमें यह नहीं कहतीं कि तुम हमारे हो या हम तुम्हारे है । इन वस्तुओंसे हम अपना जो सम्बन्ध मान लेते है, वह सम्बन्ध ही बन्धनका खास कारण है । इससे भी अधिक आश्वर्यकी बात यह है कि वस्तुके न रहनेपर भी उससे सम्बन्ध मानते रहते हैं ! सम्बन्धी तो नहीं रहता, पर सम्बन्ध रह जाता है ! जैसे पतिका देहान्त हुए कई वर्ष बीत जानेपर भी विधवा खी अपनेको उसीकी पत्नी मानती रहती है । वस्तुके रहते हुए भी हम उससे अपना सम्बन्ध तोड़ सकते हैं, फिर वस्तुके न रहनेपर तो उससे सम्बन्ध रहना ही नहीं चाहिये । वस्तुसे अपना जो सम्बन्ध दीखता है, वह केवल उस वस्तुके सदुपयोग- (सेवा-) के लिये ही है, अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं ।

यदि मनुष्य संसारसे माने हुए सम्बन्धका त्याग कर दे तो वह निहाल हो जाय ! मनुष्यका वास्तविक सम्बन्ध परमात्माके साथ है, जो नित्यसिद्ध है । अतः साधकको दृढ़तापूर्वक यह मान लेना चाहिये कि ये उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुएँ मेरी नहीं है । मेरे तो केवल भगवान् ही हैं‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।’

उस नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वको उद्योगसाध्य (परिश्रमसाध्य या पुरुषार्थसाध्य) मान लेना भूल है । उद्योगसाध्य वस्तु बनावटी होती है । परमात्मतत्त्वमें हमारी स्थिति बनावटी नहीं है, अपितु वास्तविक है; उसमें हमारी स्थिति स्वतः है । परमात्माके सिवा सब कुछ ‘पर’ है । ‘पर’- (संसार-) के अधीन होना पराधीनता है । उद्योग इतना ही है कि पराधीनताको त्याग दें अर्थात् संसारसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लें । जो निरन्तर हमें छोड़ता चला जा रहा है, उसीको छोड़ना है‒यही साधन है । जो सदासे विमुख है, उस संसारसे ही विमुख होना है और जो सदासे सम्मुख है, उस परमात्मतत्त्वके ही सम्मुख होना है‒

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अध नासहिं तबहीं ॥
                                     (मानस ५ । ४३ । १

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे

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