।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि

आश्विन कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७२, बुधवार
तृतीया-श्राद्ध
वास्तविक सुख




मनुष्य जबतक उत्पत्ति-विनाशशील सुखमें फँसा रहता है, तबतक उसको होश नहीं होता, ज्ञान नहीं होता । उसको यह विचार ही नहीं होता कि इससे कितने दिन काम चलायेंगे ! जो उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता ही है । जिसका संयोग होता है, उसका वियोग होता ही है । जो आता है, वह चला जाता है । जो पैदा होता है, वह मर जाता है । अब इनके साथ हम कितने दिन रहेंगे ? अतः मनुष्यके लिये यह बहुत आवश्यक है कि वह ऐसे आनन्दको प्राप्त कर ले, जिसे प्राप्त करनेपर वह सदाके लिये सुखी हो जाय, उसको कभी किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो ।

हम देखते हैं कि बचपनसे लेकर अभीतक मैं वही हूँ । शरीर बदल गया, दृश्य बदल गया, परिस्थिति बदल गयी, देश, काल आदि सब कुछ बदल गया, पर मैं वही हूँ । बदलनेवालोंके साथ मैं कितने दिन रह सकता हूँ ? इनसे मुझे कबतक सुख मिलेगा ? इस बातपर विचार करनेकी योग्यता तथा अधिकार केवल मनुष्यको ही मिला है और मनुष्य ही इसको समझ सकता है । पशु-पक्षियोंमें इसको समझनेकी ताकत ही नहीं है । देवता आदि समझ तो सकते हैं, पर उनको भी वह अधिकार नहीं मिला है, जो कि मनुष्यको मिला हुआ है । मनुष्य खूब आगे बढ़ सकता है; क्योंकि मानव-शरीर मिला ही भगवत्प्राप्तिके लिये है । महान् आनन्द मिल जाय, सदा रहनेवाला सुख मिल जाय, उसमें कभी कमी आये ही नहीं‒ऐसे सुखकी प्राप्तिके लिये यह मनुष्य-शरीर मिला है । सांसारिक तुच्छ सुख पानेके लिये मनुष्य-शरीर है ही नहीं । ऐसा सुख तो पशु-पक्षियोंको भी मिलता है । हवा चलती है, वर्षा बरसती है, धूप तपती है‒ऐसी अनुकूलता-प्रतिकूलता तो पशु, पक्षी, वृक्ष आदिके सामने भी आती है । उनको भी सुख-दुःख होता है । खेती कुम्हला रही हो और एकदम वर्षा हो जाय तो दूसरे दिन देखो, पत्तियाँ बड़ी सुन्दर, हरी-भरी हो जायँगी; अतः उनको भी प्रसन्नता होती है । वर्षा न होनेसे खेती कुम्हला जाती है; अतः उनको भी दुःख होता है । इस प्रकार थोड़ा सुख और थोड़ा दुःख तो सभी प्राणियोंको होता रहता है । अगर हम भी उन्हींकी तरह सुखी-दुःखी होते रहेंगे तो महान् सुखको कौन प्राप्त करेगा ।

महान् सुख है, इसमें सन्देह नहीं । जैसे, संसारमें एक-एकसे बड़ी वस्तु होती है, एक विद्वान् भी होता है तो उससे बड़ा विद्वान् भी होता है; एक लम्बी उम्रवाला होता है तो उससे लम्बी उम्रवाला भी होता है; एक बलवान् होता है तो उससे बड़ा बलवान् भी होता है । इस बड़प्पनकी कहीं--कहीं हद होगी । कोई सबसे बड़ा विद्वान् होगा, सबसे लम्बी उम्रवाला (अविनाशी) होगा, सबसे बड़ा बलवान् होगा; उसको ही ईश्वर कहते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७२, मंगलवार
द्वितीया-श्राद्ध
अविनाशी बीज


(गत ब्लॉगसे आगेका)
‘यह सब संसार परमात्म-तत्त्व है’पहले हम इस बातको शास्त्रोंसे समझकर मान लें, अगाड़ी परमात्मा दीखने लग जायँगे । गीताने इसीको ज्ञान कहा है । ठीक तत्त्वसे जान लेनेपर अनुभव हो जाता है । संसार दीखता है, पर वास्तवमें यह है परमात्मा ही । ऐसा बोध होनेपर वह महात्मा कहलाता है । जिसकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव हैं वह महात्मा दुर्लभ है‘वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥’ (गीता ७ । १९) । अब कोई कहे कि हम पहले कैसे मान लें जबतक हमारेको बिलकुल शरीर मिट्टी, मकान आदि अलग-अलग चीजें दीखती हैं ? इसको ऐसे मानें कि आदि-अन्तमें जो रहेगा, वही मध्यमें होगा और बीचमें भी वही चीज होगी । ऐसे ही संसारके आदिमें परमात्मा थे, अन्तमें परमात्मा रहेंगे, बीचमें संसाररूपसे परमात्मा ही दीख रहे हैं । तत्त्वसे देखा जाय तो परमात्माके सिवाय और क्या है ? इस संसारके स्वाँगमें आनेसे परमात्मा असली रूपमें नहीं दीखते, संसाररूप स्वाँग दीखता है ।

ध्यान देनेकी एक विचित्र बात यह है कि परमात्मा नित्य-निरन्तर रहते हैं, कभी बदलते नहीं, कभी मिटते नहीं; परन्तु संसार कभी एक रूपसे नहीं रहता । जिस दिन शरीर जन्मे, उस दिन ऐसे नहीं थे । जन्मके पाँच-दस दिनके बाद शरीरको देखा हो, दो-चार वर्षके बाद देखा हो और आज देखे तो पहचान नहीं सकते, इतना बदल जाता है । वह प्रत्येक वर्षमें बदलता है प्रत्येक महीनेमें बदलता है, प्रत्येक घण्टेमें, प्रत्येक मिनटमें, प्रत्येक सेकण्डमें बदलता है । बदलने-बदलनेका नाम ही शरीर है । संसार और कुछ नहीं है, यह बदले बिना रहता ही नहीं, परमात्मा कभी बदलते ही नहीं । यह प्रश्न है कि परमात्मा होते हुए दीखते क्यों नहीं ? वास्तवमें जिस (संसार)-को ‘है’ मानते हैं वह परमात्मा ही है, पर संसार ‘है’ रूपसे दीखता है ।

जासु सत्यता  तें  जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥

जिस (परमात्मा)-की सत्यतासे संसार सत्यकी तरह दीखता है । मूढ़ताकी सहायतासे यह सच्चा दीखता है, मूढ़ता चली जाय तो यह सच्चा नहीं दीखेगा, प्रत्युत परमात्मा ही सच्चे दीखेंगे । इस संसारमें ‘है’ रूपसे परमात्मा सच्चे हैं, संसार सच्चा नहीं है; क्योंकि यह प्रत्यक्ष बदलता है जन्मता-मरता है । यह प्रत्यक्ष बात है । यह बदलता हुआ दीखनेपर भी है वही परमात्मा । ऐसा विश्वास करके भजन-स्मरण करनेसे, जप-ध्यान करनेसे, परमात्माकी तरफ सम्मुख हो जानेसे, अन्तमें वे परमात्मा ही रह जाते हैं । परमात्माको ठीक जाननेवाले ही तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त हैं जो कि परमात्मतत्त्वको जान लेते हैं । इस वास्ते ऐसा मानकर भगवान्के भजनमें निरन्तर लग जाना चाहिये । यह सार बात है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद पूर्णिमा, वि.सं.२०७२, सोमवार
महालयारम्भ, प्रतिपदा-श्राद्ध
अविनाशी बीज


(गत ब्लॉगसे आगेका)
वृक्ष दीखते हुए भी बीज ही हैंऐसा जो जानते हैं, वे वृक्षको ठीक जानते हैं । जो बीजको न देखकर केवल वृक्षको देखते हैं, वे वृक्षके तत्त्वको नहीं जानते, क्योंकि वे तो वृक्षकी टहनियाँ हैं, पत्ते हैं, फूल हैं, इनमें लुब्ध हो जाते हैं, ऐसे मनुष्योंको भगवान्ने ‘यामिमां पुष्पितां वाचम्’ (गीता २ । ४२) और ‘छन्दांसि यस्य पर्णानि’ ( गीता १५ । १) वचन कहे हैं । इसी तरहसे भगवान् यहाँ ‘बीजं मां सर्वभूतानाम्’ कहकर सबको यह याद कराते हैं कि तुम्हारेको जितना यह संसार दीखता है, इसके पहले केवल मैं ही था ‘एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेयम्’एक मैं ही प्रजारूपसे प्रकट हो गया हूँ और इसके समाप्त होनेपर मैं ही रह जाता हूँ अर्थात् पहले मैं ही था और पीछे मैं ही रहता हूँ, बीचमें भी मैं ही हूँ ।

जैसे बीजसे वृक्ष उत्पन्न होता है, बीज ही वृक्षरूपसे दीखता है, पर बीज नहीं दीखता । इसी तरहसे यह संसार पांचभौतिक दीखता है । जो विचार करते हैं, उनको भी पांचभौतिक दीखता है, नहीं तो पांचभौतिक भी नहीं दीखता । जैसे कोई कह दे कि ये अपने शरीर सब-के-सब पार्थिव शरीर हैये शरीर पृथ्वीसे पैदा होनेवाले हैं; क्योंकि इनमें मिट्टीकी प्रधानता है, दूसरा कोई कहेगा कि ये मिट्टी कैसे हैं ? मिट्टीसे तो हाथ धोते हैं, इस वास्ते ये शरीर मिट्टी नहीं हैं । शरीर मिट्टीका होते हुए भी जरा भी मिट्टीका नहीं दीखता; परन्तु यह जितना संसार दीखता है, इसको जलाकर राख कर दिया जाय तो अन्तमें एक चीज हो जाती है ।

इन शरीरोंके मूलमें क्या है ? माँ-बापसे यह शरीर पैदा होता है । माँ-बापके रज-वीर्यसे शरीर बनता है । वह अन्न-अंशसे पैदा होता है, अन्न मिट्टीसे पैदा होता है, इस प्रकार यह शरीर मिट्टीसे पैदा होता है और अन्तमें मिट्टीमें ही लीन हो जाता है । इसको जलानेपर राख हो जायगा, गाड़ दे तो मिट्टी हो जायगा या पशु-पक्षी खा जायँगे तो भी विष्ठा बनकर मिट्टी हो जायगाये तीन गतियाँ ही होती हैं । इस तरहसे शरीर अन्तमें मिट्टी हो जाता है । पहले भी मिट्टी था, परन्तु यह शरीर-संसार देखनेसे मिट्टी नहीं दीखता । विचार करनेसे यह मिट्टी दीखता है, आँखोंसे नहीं दीखता । इसी तरहसे यह संसार परमात्माका स्वरूप नहीं दीखता । विचार करनेसे पता लगता है कि भगवान्ने यह संसार रचा तो कहीं और जगहसे कोई सामान नहीं मँगवाया । कहींसे कोई बिल्टी नहीं आयी, जिससे कि यह संसार बनाया हो । बनानेवाला भी दूसरा नहीं हुआ । आप स्वयं संसार बनानेवाले और आप ही स्वयं संसार बन गये । शरीरोंकी रचना करके आप स्वयं उनमें प्रवेश हो गये । इन शरीरोंमें जीवरूपसे वे परमात्मा ही हैं, यह संसार परमात्माका स्वरूप ही है ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७२, रविवार
अनन्तचतुर्दशी-व्रत, व्रत-पूर्णिमा
अविनाशी बीज


 २६-१०-८२, बम्बई
उपनिषदोंमें आता है कि जैसे सोनेसे बने हुए सब गहनोंमें सोना ही होता है, मिट्टीसे बने हुए सब बर्तनोंमें मिट्टी ही होती है । लोहेसे बने हुए सब अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा ही होता है । गीतामें भी आया है कि सम्पूर्ण जगत्का प्रभव तथा प्रलय मैं ही हूँ । ‘अहं कृत्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥’ (गीता ७ । ६) । गीतामें सोना, मिट्टी तथा लोहा, इनके उदाहरण तो नहीं दिये गये हैं, किन्तु बीजका दृष्टान्त दिया है कि सम्पूर्ण जगत्का बीज मैं हूँ । बीजके साथ ‘सनातनः’ विशेषण दिया, मानो अनादि बीज मैं हूँ‘बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।’ (गीता ७ । १०) । गीता १ । १८ में कहाअविनाशी बीज मैं हूँ ‘बीजमव्ययम् ।’ गीता १० । ३९ में कहासंसारमें जड़-चेतन, स्थावर-जंगम यावन्मात्र वस्तु है, उन सबका बीज मैं हूँ‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।’

बीजमात्र वृक्षसे पैदा होते हैं और वृक्षको पैदा करके स्वयं बीज नष्ट हो जाता है, मानो बीजसे अंकुर निकल आता है और वृक्षरूप हो जाता है और वह बीज स्वयं खतम हो जाता है; परंतु गीतामें भगवान् अपनेको संसारमात्रका बीज कहते हुए भी यह एक विलक्षण बात बताते हैं कि मैं बीज हूँ, पर अनादि बीज हूँ, पैदा हुआ बीज नहीं हूँ‘बीजमव्ययम् ।’ अव्यय बीज कहनेका मतलब है कि संसार मेरेसे पैदा हो जाता है; परन्तु मैं जैसा-का-तैसा ही रहता हूँ, साधारण बीजकी तरह मैं मिटता नहीं हूँ गीता १० । २० में जहाँ भगवान् विभूतियोंका वर्णन आरम्भ करते हैं वहाँ भगवान् कहते हैं कि मैं ही सबका आत्मा हूँ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।’ और सबके हृदयमें मैं ही स्थित हूँ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’, (गीता १५ । १५), ‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’ (गीता १३ । १७); ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति (गीता १८ । ६१); यह कहनेका अर्थ हुआ कि संसारका कारण मैं ही हूँ, सब संसार मिटनेपर मैं ही रहता हूँ, संसारके रहते हुए भी मैं सबमें परिपूर्ण हूँ और सबके हृदयमें विराजमान हूँ । इससे ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’ यह सिद्ध हुआ ।

सोना, मिट्टी और लोहेका जहाँ उदाहरण दिया है वहाँ गहनोंमें सोना दीखता है, बर्तनोंमें मिट्टी दीखती है और अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा दीखता है, पर इस तरहसे संसारमें परमात्मा नहीं दीखते हैं । वृक्षमें बीज दीखता नहीं, पर बीजके आनेपर ऐसा पता लगता है कि इस वृक्षमें ऐसा बीज है और ऐसे बीजसे यह वृक्ष पैदा हुआ है । सम्पूर्ण वृक्ष बीजसे ही निकलता है और बीजमें ही समाप्त हो जाता है । आरम्भ बीजसे होता है और अन्त बीजमें ही होता है अर्थात् वह वृक्ष चाहे सौ वर्षतक रहे, पर उसकी अन्तिम परिणति बीजमें ही होगी । बीजके सिवाय और क्या होगा ? ऐसे ही भगवान् संसारके बीज हैं अर्थात् भगवान्से ही संसारकी उत्पत्ति होती है और भगवान्में ही लीन हो जाता है तो अन्तमें एक भगवान् ही बाकी रहते हैं‘शिष्यते शेषसंज्ञ ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे

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