।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७२, रविवार
श्रीरामानन्दाचार्य-जयन्ती
अलौकिक प्रेम


(गत ब्लॉगसे आगेका)
यद्यपि श्रीकृष्णके प्रति उन गोपियोंकी जारबुद्धि थी अर्थात् उनकी दृष्टि परमपति भगवान्‌के शरीरकी सुन्दरताकी तरफ थी तो भी वे भगवान्‌को प्राप्त हो गयीं‒‘तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्गताः ।’ जारबुद्धि होनेपर भी गोपियोंमें अपने सुखकी इच्छा (काम) लेशमात्र भी नहीं है । अगर उनमें अपने सुखकी इच्छा होती तो वे अपने शरीरको सजाकर भगवान्‌के पास जातीं । यहाँ ‘जारबुद्धि’ शब्द इसलिये दिया है कि गोपियोंका विवाह तो दूसरेके साथ हुआ था, पर उनका प्रेम श्रीकृष्णमें था । उनका गुणमय शरीर ही नहीं रहा, फिर भोगबुद्धि कैसे रहेगी ? भोगबुद्धिके रहनेका स्थान ही नहीं रहा, केवल परमात्मा ही रहे । गोपियोंमें यह विलक्षणता भगवान्‌की दिव्यातिदिव्य वस्तुशक्ति (स्वरूपशक्ति)-से आयी है, अपनी भावशक्तिसे नहीं । भगवान्‌की वस्तुशक्तिसे गोपियोंकी जारबुद्धि नष्ट हो गयी । जैसे अग्निसे सम्बन्ध होनेपर सभी वस्तुएँ (अग्निकी वस्तुशक्तिसे) अग्निरूप ही हो जाती हैं, ऐसे ही भक्त भगवान्‌के साथ काम, द्वेष, भय, स्नेह आदि किसी भी भावसे सम्बन्ध जोड़े, वह (भगवान्‌की वस्तुशक्तिसे) भगवत्स्वरूप ही हो जाता है ।[*] इसमें भक्तका भाव, उसका प्रयास काम नहीं करता, प्रत्युत भगवान्‌की दिव्यातिदिव्य स्वरूपशक्ति काम करती है । इसका कारण यह है कि भगवान्‌ जीवके कल्याणके लिये ही प्रकट होते हैं‒‘नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवतो नृप’ (श्रीमद्भा १० । २९ । १४)

गीतामें भगवान्‌के चार प्रकारके भक्त बताये गये हैं‒ अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)[†] । यद्यपि अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासुका गुणोंके साथ सम्बन्ध रहता है, तथापि मुख्य सम्बन्ध भगवान्‌के साथ रहनेके कारण वे भी तीनों गुणोंसे रहित हो जाते हैं । इसलिये जिस-किसी उपायसे जीवका भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जुड़ना चाहिये‒‘तस्मात् केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत्’ (श्रीमद्भा ७ । १ । ३१); क्योंकि जीव भगवान्‌का ही अंश है । भगवान्‌का सम्बन्ध मुख्य रहनेसे भोगोंका सम्बन्ध मिट जाता है, पर भोगोंका सम्बन्ध मुख्य रहनेसे भगवान्‌का सम्बन्ध छिप जाता है, मिटता नहीं । कारण कि जीवका भगवान्‌के साथ नित्ययोग है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[*] कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहाद् यथा भक्तेश्वरे मनः ।
               आवेश्य   तदधं    हित्या    बहवस्तद्गतिं   गताः ॥
   गोप्यः कामाद् भयात् कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः ।
   सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहाद् यूयं भक्या वयं विभो ॥
                                     (श्रीमद्भा ७ । १ । २९-३०)

‘एक नहीं, अनेक मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भयसे और स्नेहसे अपने मनको भगवान्‌में लगाकर तथा अपने सारे पाप धोकर वैसे ही भगवान्‌को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्तिसे । जैसे, गोपियोंने कामसे, कंसने भयसे, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओंने द्वेषसे, यदुवंशियोंने परिवारके सम्बन्धसे, तुमलोगों (युधिष्ठिर आदि)-ने स्नेहसे और हमलोगों (नारद आदि) -ने भक्तिसे अपने मनको भगवान्‌में लगाया है ।’

[†] चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
     आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी  ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
                                                          (गीता ७ । १६)


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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७२, शनिवार
अलौकिक प्रेम


(गत ब्लॉगसे आगेका)
सत्त्वगुण प्रकाशक और अनामय है, इसलिये उसको यहाँ ‘मङ्गल’ नामसे कहा गया है[1] परन्तु प्रकाशक और अनामय होनेपर भी वह सुख और ज्ञानके संगसे बाँधनेवाला होता है‒‘सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ’ (गीता १४ । ६) । ध्यानमें आये हुए श्रीकृष्णका मन-ही-मन आलिंगन करनेसे गोपियोंको जो विलक्षण सुख हुआ, उस सुखसे सत्त्वगुणसे होनेवाले सुखसंग और ज्ञानसंगका भी सुख मिट गया अर्थात् सात्त्विक सुख और सात्त्विक ज्ञानकी भी आसक्ति मिट गयी इस प्रकार जन्म-मरणका कारण जो तीनों गुणोंका संग है, वह सर्वथा नहीं रहा, जिसके न रहनेसे गोपियोंका गुणमय शरीर भी नहीं रहा ।

तत्वज्ञान शरीरके सम्बन्ध (अहंता-ममता)-का नाश तो करता है, पर शरीरका नाश नहीं करता । कारण कि जीवन्मुक्त होनेपर संचित और क्रियमाण कर्म तो क्षीण हो जाते हैं, पर प्रारब्ध क्षीण नहीं होता । इसलिये जीवन्मुक्ति, तत्त्वज्ञान होनेपर भी जबतक प्रारब्धका वेग रहता है, तबतक शरीर भी रहता है । अगर शरीर तत्काल नष्ट हो जाय तो फिर ज्ञानका उपदेश कौन करेगा ? ब्रह्मविद्याकी परम्परा कैसे चलेगी ? परन्तु गोपियोंका विरहजन्य ताप इतना विलक्षण था कि उनका गुणसंग तो रहा ही नहीं गुणमय शरीर भी नष्ट हो गया ! उनके संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध‒तीनों एक साथ तत्काल (सद्यः) और सर्वथा क्षीण (प्रक्षीण) हो गये‒‘सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।’ इससे सिद्ध होता है कि ‘वियोग’ में बन्धन जल्दी छूटता है, पर ‘योग’ में देरी लगती है । वियोगमें योगसे भी विलक्षण आनन्द होता है ।

विरहका तीव्र ताप जन्म-मरणके मूल कारण गुणसंग (मूल अज्ञान)-को ही जला देता है । जो गोपियाँ वंशीवादन सुनकर भगवान्‌के पास चली गयी थीं, उनका वह अनादिकालका गुणसंग नष्ट नहीं हुआ; क्योंकि उनको वियोगजन्य तीव्र ताप नहीं हुआ । परन्तु जिनको वियोगजन्य तीव्र ताप हुआ, उनके लिये अनादिकालके गुणसंगसहित सम्पूर्ण जगत्‌की निवृत्ति हो गयी और वे सबसे पहले भगवान्‌से जा मिलीं । विरहके तीव्र तापसे उनका शरीर छूट गया और ध्यानजनित आनन्दसे वे भगवान्‌से अभिन्न हो गयीं । वे भगवान्‌से बाहर न मिलकर भीतरसे ही मिल गयीं, जो कि वास्तविक (सर्वथा) मिलन है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे


[1] गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है‒‘तत्र सत्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयन्’ (१४ । ६) और परमपदको भी अनामय कहा गया है‒‘जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्’ (२ । ५१) । दोनोंमें फर्क यह है कि सत्वगुण सापेक्ष अनामय है और परमपद निरपेक्ष अनामय है ।


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