।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि

आषाढ़ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७३, सोमवार

जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

ऊँच-नीच योनियोंमें जितने भी शरीर मिलते हैं, वे सब गुण और कर्मके अनुसार ही मिलते हैं ।[*] गुण और कर्मके अनुसार ही मनुष्यका जन्म होता है; इसलिये मनुष्यकी जाति जन्मसे ही मानी जाती है । अतः स्थूलशरीरकी दृष्टिसे विवाह, भोजन आदि कर्म जन्मकी प्रधानतासे ही करने चाहिये अर्थात् अपनी जाति या वर्णके अनुसार ही भोजन, विवाह आदि कर्म होने चाहिये ।

दूसरी बात, जिस प्राणीका सांसारिक भोग, धन, मान, आराम, सुख आदिका उद्देश्य रहता है, उसके लिये वर्णके अनुसार कर्तव्य-कर्म करना और वर्णकी मर्यादामें चलना आवश्यक हो जाता है । यदि वह वर्णकी मर्यादामें नहीं चलता तो उसका पतन हो जाता है ।[†] परन्तु जिसका उद्देश्य केवल परमात्मा ही है, संसारके भोग आदि नहीं, उसके लिये सत्संग, स्वाध्याय, जप, ध्यान, कथा, कीर्तन, परस्पर विचार-विनिमय आदि भगवत्सम्बन्धी काम मुख्य होते हैं । तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिमें प्राणीके पारमार्थिक भाव, आचरण आदिकी मुख्यता है, जाति या वर्णकी नहीं ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे



[*] कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।
                                              (गीता १३ । २१)

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं   दुःखमज्ञानं   तमसः फलम् ॥
                                                (गीता १४ । १६)

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था     अधो  गच्छन्ति तामसाः ॥
                                                (गीता १४ । १८)

[†] आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यदप्यधीताः सह षड्‌भिरङ्गैः । छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ॥ (वसिष्ठस्मृति)

‘शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष‒इन छहों अंगोंसहित अध्ययन किये हुए वेद भी आचारहीन पुरुषको पवित्र नहीं करते । पंख पैदा होनेपर पक्षी जैसे अपने घोंसलेको छोड़ देता है ऐसे ही मृत्युसमयमें आचारहीन पुरुषको वेद छोड़ देते हैं ।’