।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, बुधवार
घोर पापोंसे बचो


(गत ब्लॉगसे आगेका)

मनुष्यको अपनी सीमा, मर्यादामें रहना चाहिये । अगर जनसंख्या-नियन्त्रणका काम मनुष्य अपने हाथमें लेगा तो इससे प्रकृति कुपित होगी, जिसका नतीजा बड़ा भयंकर होगा ! मनुष्यपर केवल अपने कर्तव्यका पालन करनेकी, दूसरोंकी सेवा करनेकी, भगवान्‌का स्मरण करनेकी, भोगोंका त्याग करनेकी, संयम करनेकी जिम्मेवारी है । भोगोंका त्याग और संयम मनुष्य ही कर सकता है । अगर सन्तानकी इच्छा न हो तो संयम रखना चाहिये । हल तो चलाये, पर बीज डाले ही नहीं‒यह बुद्धिमानीका काम नहीं है । पशु भी स्वतः मर्यादा, संयममें रहते हैं; जैसे‒गधा श्रावण मासमें, कुत्ता कार्तिक मासमें, बिल्ली माघ मासमें ही ब्रह्मचर्य-भंग करते हैं, बाकी समय वे संयमसे रहते हैं । मनुष्य अगर चाहे तो सदा संयमसे रह सकता है । एक सत्संगी बहनकी दो सन्ताने हैं । मैंने उससे पूछा कि तुमने कृत्रिम उपायोंसे सन्तति-निरोध तो नहीं किया ? वह बोली कि जब आप इनका निषेध करते हैं तो फिर यह काम हम क्यों करें ? आप संयमकी बात कहते हैं, इसलिये हम संयमसे रहते हैं । इस प्रकार और भी न जाने कितने स्त्री-पुरुष संयमसे रहते होंगे ! संयम रखनेसे शारीरिक, पारमार्थिक सब तरहकी उन्नति होती है । ज्यादा रोग असंयमसे ही पैदा होते हैं । संयमसे स्वास्थ्य ठीक रहता है और उम्र बढ़ती है ।

हमारे देशमें सदासे संयमकी प्रधानता रही है । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास‒चारों आश्रमोंमें केवल गृहस्थाश्रममें ही सन्तानोत्पत्तिका विधान है, पर संयमकी प्रधानता चारों ही आश्रमोंमें है, परन्तु सरकार आश्रम-व्यवस्थाको मानती नहीं, साधुओंका तिरस्कार करती है, सत्संग, सदाचार, संयमके प्रचारसे परहेज रखती है और कृत्रिम सन्तति-निरोधके उपायोंद्वारा लोगोंको भोगी, असंयमी बननेकी प्रेरणा करती है !

शासक पिताके समान होता है और प्रजा पुत्रके समान । सरकारका काम अपने देशके नागरिकोंको पापोंसे बचाकर कर्तव्य-पालनमें, धर्म-पालनमें लगाना है । परन्तु आज सरकार उलटे लोगोंको पापोंमें लगा रही है, विभिन्न प्रचार-माध्यमोंसे उनको गर्भपात, मांस-मछली-अण्डा- भक्षण आदि पाप करनेके लिये प्रेरित कर रही है ! उनको भय और प्रलोभन देकर गर्भपात; नसबन्दी आदि पाप करनेके लिये बाध्य कर रही है । गर्भपात, नसबन्दीके इतने केस लाओ तो पुरस्कार देंगे, नहीं तो नौकरीसे निकाल देंगे, वेतन नहीं देंगे अर्थात् पाप करो तो पुरस्कार देंगे, नहीं तो दण्ड देंगे‒यह सरकारकी कितनी अन्यायपूर्ण नीति है ! इतना ही नहीं, सरकारको पापोंसे सन्तोष भी नहीं हो रहा है और वह गर्भपातके, सन्तति-निरोधके नये-नये उपाय ढूँढ रही है, पशुओंका वध करनेके लिये नये-नये कसाइखाने खोल रही है । रामायणमें आया है‒

ईस भजनु सारथी  सुजाना ।
बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥
                          (मानस, लंका ८० । ४)

कृपाणकी तीन तरफ धार होती है‒बायें, दायें और आगे । अंतः वह तीनों तरफसे शत्रुओंका नाश करती है । सन्तोषको कृपाण कहनेका तात्पर्य है कि वह काम, क्रोध और लोभ‒तीनों शत्रुओंका नाश कर देती है[*] । सरकार सन्तोष न करके, काम, क्रोध और लोभ‒तीनों शत्रुओंकी वृद्धि कर रही है, फिर देशमें सुख-शान्ति कैसे होंगे ?

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे



[*] बिनु संतोष न काम नसाहीं । काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ॥
                                                      (मानस, उत्तर ९० । १)

  नहिं संतोष त पुनि कछु कहहू । जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू ॥  
                                                     (मानस, बाल २७४ । ४)

  उदित अगस्ति पंथ जल सोषा । जिमि लोभहि सोषइ संतोषा ॥
                                                 (मानस, किष्किंधा १६ । २)