।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
गीताकी विलक्षणता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

सभी दर्शनशास्त्र दुःखोंके नाशको अर्थात् मोक्षको ही मानवजीवनका चरम लक्ष्य मानते हैं, इसलिये उनमें ईश्वरका स्थान गौण है । परन्तु गीतामें ईश्वरकी मुख्यता है । गीता मोक्षके बाद पराभक्ति-(परम प्रेम) प्राप्त होनेकी बात कहती है‒‘समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्’ (१८ । ५४) ।[*] तात्पर्य है कि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग तो साधन हैं, पर भक्तियोग साध्य है । इसलिये क्षरकी प्रधानतावाला कर्मयोग तथा अक्षरकी प्रधानतावाला ज्ञानयोग तो लौकिक एवं करणसापेक्ष है‒‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’ (१५ । १६); परन्तु परमात्माकी प्रधानतावाला भक्तियोग अलौकिक एवं करणनिरपेक्ष है‒‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः’ (१५ । १७) ।

गीताका कर्मयोग और ज्ञानयोग भी ईश्वर-भक्तिसे रहित नहीं है; जैसे, कर्मयोगमें‒

‘युक्त आसीत मत्परः’ (२ । ६१)

‘कर्मयोगी साधक मेरे परायण होकर बैठे ।’

और ज्ञानयोगमें‒

‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी’ (१३ । १०)

‘मुझमें अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्तिका होना (ज्ञानप्राप्तिका उपाय है) ।’

‘मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते’ (१४ । २६)

‘जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मेरा सेवन करता है (वह गुणातीत हो जाता है) ।’

ध्यानयोगमें भी गीता कहती है‒

‘मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः’ (६ । १४)

‘सावधान ध्यानयोगी मनका संयम करके मुझमें चित्त लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठे ।’

इस प्रकार अन्य दर्शनशास्त्रोंमें ईश्वरवादका जो अभाव दीखता है, वह अभाव गीताने मिटा दिया है । साधक कितनी ही ऊँची अवस्थाको प्राप्त हो जाय, जबतक वह ईश्वरको प्राप्त नहीं होता, तबतक उसका आवागमन नहीं मिटता, इस बातको गीताने स्पष्ट कर दिया है‒

आब्रह्मभुवनाल्लोका पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
                                                    (८ । १६)

‘हे अर्जुन ! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्ती हैं अर्थात् वहाँ जानेपर पुनः लौटकर संसारमें आना पड़ता है; परन्तु हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता ।’

‘यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’  (८ । २१)

‘जिसे प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर संसारमें नहीं आते, वह मेरा परम धाम है ।’

‘यदगत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’  (१५ । ६)

‘जिसको प्राप्त होकर जीव लौटकर संसारमें नहीं आते, वही मेरा परम धाम है ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे


[*] दर्शनशास्त्रोंमें दुःखोंकी निवृत्तिका सुख है, पर गीतामें परमात्माकी प्राप्तिका सुख है । दुःखोंका सर्वथा नाश होनेपर ‘अखण्ड सुख’ मिलता है, पर ईश्वरमें प्रेम होनेपर ‘अनन्त सुख’ मिलता है ।