।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, मंगलवार
परोपकारका सुगम उपाय



(गत ब्लॉगसे आगेका)

दुकानदार भाई अपनी दुकानमें गीताप्रेसकी पुस्तकें रखें और उनकी बिक्री करें । एक बार प्रयागराजमें कुम्भ-मेलेके अवसरपर सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने कहा था कि कोई व्यक्ति थैलेमें गीताप्रेसकी पुस्तकें भरकर घूमे और उनकी बिक्री करे तो उसका कल्याण हो जायगा । कारण कि पुस्तकोंको पढ़नेसे लोगोंको बड़ी शान्ति मिलती है, उनके लोक तथा परलोक दोनोंका सुधार होता है । रामायणमें आया है‒‘पर हित सरिस धर्म नहि भाई’ (मानस ७ । ४१ । १) । इसलिये भाई-बहनोंके मनमें यह उत्साह होना चाहिये कि किस तरह गीताप्रेसकी पुस्तकें घर-घरमें पहुँचें ।

बीकानेरमें एक भाई अपनी माँको सत्संगमें पहुँचाकर चला जाता था और सत्संग उठनेके समय उनको लेने आ जाता था । एक दिन माँने कह दिया कि ‘बेटा ! आज तुम भी थोड़ा बैठ जाओ’ । वह सत्संगमें बैठ गया । उसपर ऐसा असर पड़ा कि वह स्वयं सत्संग करने लग गया । जैसे बिना चखे फलका, मिठाईका स्वाद नहीं जान सकते, ऐसे ही बिना सत्संग किये उसके आनन्दको नहीं जान सकते । सत्संग करनेसे एक रस आता है, शान्ति मिलती है, लोक और परलोक दोनों सुधरते हैं, कई उलझनें मिट जाती हैं, घरोंमें लड़ाई मिट जाती है । पुस्तकोंके द्वारा हरेकको घर बैठे ऐसा सत्संग मिल सकता है । पुस्तकोंको पढने-सुननेसे शोक चिन्ता, भय, उद्वेग, हलचल मिटते हैं‒ऐसा मेरेसे कई सज्जनोंने कहा है । इसलिये पुस्तकोंका विशेषरूपसे प्रचार करना चाहिये । पुस्तकोंको मुफ्तमें देनेकी अपेक्षा उनकी बिक्री करनेको मैं ठीक मानता हूँ । कारण कि आजकल लोगोंमें पैसोंका जितना आदर है, उतना सच्छास्त्र और सत्संगका आदर नहीं है । इसलिये जब पैसे लगते हैं, तब उनके मनमें पुस्तक पढ़नेकी आती है । ऐसा देखनेमें भी आता है कि जिसकी फीस ज्यादा होती है, उसको लोग बड़ा डॉक्टर मानते हैं । जिस दवामें ज्यादा पैसे लगते हैं, उसको बढ़िया दवा मानते हैं । यद्यपि पैसा सबसे रद्दी चीज है, तथापि उसका आज बड़ा मूल्य हो रहा है ।


पुस्तकोंसे कितना लाभ होता है, इसको मैं कह नहीं सकता । जैसे प्यासेको जल प्रिय लगता है, भूखेको भोजन प्रिय लगता है, ऐसे ही जिज्ञासुको पुस्तक प्रिय लगती है । इतना ही नहीं, जितनी बार पुस्तक पढ़े, उतनी ही बार वह नयी-नयी दीखती है । हर बार उसमें विलक्षणता दीखती है और ऐसा दीखता है कि यह बात तो हमने पहले पढ़ी ही नहीं । मेरे एक गुरुभाई हरेक चौमासेमें तुलसीकृत रामायणकी कथा किया करते थे । एक दिन मैंने कहा कि भगवान् शंकर इतने सरल और निरभिमान हैं कि अपने हाथोंसे आसन बिछाकर बैठते हैं‒‘निज कर डासि नागरिपु छाला । बैठे सहजहिं संभु कृपाला ॥’ (बाल १०६ । ३) यह सुनकर उन्होंने बड़ा आश्चर्य किया कि इस बातकी तरफ मेरा खयाल गया ही नहीं, जबकि इतने वर्षोंसे मैं कथा करता हूँ । इसी तरह पुस्तकोंको पढ़ते-पढ़ते कई नयी बातोंकी तरफ खयाल जाता है और विलक्षण-विलक्षण भाव पैदा होते हैं । गीताको पढ़ते हैं तो नये-नये विलक्षण भाव आते ही चले जाते हैं । उनका कोई अन्त नहीं आता । जब भगवान्‌का भी अन्त नहीं आता, तो फिर उनकी वाणीका अन्त कैसे आयेगा ? एक साधारण मनुष्यके भी भावोंका अन्त नहीं आता, फिर भगवान्‌के भावोंका अन्त कैसे आयेगा ? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ (मानस, बाल १४० । ३) ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे

|
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, सोमवार
परोपकारका सुगम उपाय



भगवान्‌का भजन-स्मरण स्वयं करनेसे और दूसरोंसे करवानेसे बड़ा लाभ होता है । भागवतमें आया है‒

स्मरन्तः स्मारयन्तश्च मिथोऽघौघहरं हरिम् ।
                                                     (११ । ३ । ३१)

‘भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण पापराशिको एक क्षणमें भस्म कर देते हैं । सब उन्हींका स्मरण करें और एक-दूसरेको स्मरण करावें ।’

दूसरोंको भगवान्‌में लगानेका बड़ा भारी पुण्य होता है । शास्त्रमें आया है‒‘अन्नदानं महादानं विद्यादानं ततोऽधिकम्’ अर्थात् अन्नदान महादान है, पर विद्यादान उससे भी बड़ा दान है । विद्याओंमें सबसे श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या है । ब्रह्मविद्याका दान तो कोई तत्त्वज्ञ महापुरुष ही कर सकता है, पर एक ऐसा विद्यादान है, जिसको सभी भाई-बहन कर सकते हैं । वह विद्यादान है‒भगवान्‌के नामका, गुणोंका, लीलाओंका, महिमाका, तत्त्वका प्रचार । यह प्रचार साधारण-से-साधारण आदमी भी कर सकता है । इसका अभी बड़ा सुन्दर अवसर आया हुआ है ।

गीताप्रेसके द्वारा बड़े अच्छे-अच्छे ग्रन्थ बहुत सरल भाषामें और थोड़े मूल्यमें प्रकाशित किये जाते हैं । मैंने श्रेष्ठ पुरुषोंसे सुना है कि गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थ घरमें पड़े-पड़े कल्याण करते हैं । एक मेरे मित्र थे । वे खूब नाम-जप करते थे । वे कहते थे कि मैं गीता, रामायण, तत्त्व-चिन्तामणि आदि ग्रन्थ अपने सामने रख देता हूँ और उनकी तरफ देखते हुए नाम-जप करता हूँ तो उनमें लिखी बातें याद आनेसे जप बड़ी तेजीसे होता है । इस तरह इन ग्रन्थोंसे बहुत लाभ होता है ।

अगर दूसरोंके हितके लिये इन पुस्तकोंका प्रचार किया जाय तो लोगोंको बड़ी शान्ति मिलती है । ऐसे कई सज्जन मेरेसे मिले हैं, जिनका गीताप्रेसकी पुस्तकोंके द्वारा जीवन बदल गया । पुस्तकोंसे आश्चर्यजनक लाभ होता है । जब मैं संस्कृतका विद्यार्थी था, तब साधारण भिक्षासे जीवन-निर्वाह करता था । पैसोंके अभावके कारण मनचाही पुस्तक नहीं मँगा सकता था । तब मैंने और एक दूसरे विद्यार्थीने मिलकर गीताप्रेसको पत्र दिया कि हम ‘कल्याण’ के ग्राहक बनना चाहते हैं, अतः कुछ रियायत हो जाय । उस समय ‘कल्याण’ चार रुपयेमें मिलता था, पर उन्होंने हमें तीन रुपयेमें भेज दिया तो बड़ी प्रसन्नता हुई कि हमारेपर बड़ी कृपा हो गयी ! ‘कल्याण’ पढ़नेको मिल गया !

पुस्तकोंसे बड़ा लाभ होता है‒इसका मेरेको अनुभव है । सत्संगसे और पुस्तकोंसे मेरेको जितना लाभ हुआ है, उतना दूसरे किसी साधनसे नहीं हुआ है । गीताप्रेसके संस्थापक, संचालक तथा संरक्षक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाकी पुस्तकोंका मेरेपर बड़ा असर पड़ा था । उनकी पुस्तकोंको पढ़नेसे ऐसा लगा कि ये अनुभवके जोरसे लिखी गयी हैं, विद्वत्ताके जोरसे नहीं । उनकी पुस्तकोंको पढ़कर ही मैं उनके पास गीताप्रेस गया ।


गीताप्रेससे प्रकाशित पुस्तकें बड़ा असर करनेवाली हैं । उनको पढ़नेसे बड़ा संतोष होता है, शान्ति मिलती है । उन पुस्तकोंकी कई प्रतियाँ अपने पास रखो और दूसरोंको पढ़नेके लिये दो । उनसे कहो कि यह पुस्तक पढ़कर हमारेको दे देना ।  फिर उनसे पूछते रहो कि आपने वह पुस्तक पढ़ ली कि नहीं ? वे पूरी पढ़कर पुस्तक दे दें तो फिर दूसरी पुस्तक दे दो । इससे पुस्तकोंका बहुत बढ़िया प्रचार होता है । मुफ्तमें पुस्तकें देना भी विद्यादान है, पर मुफ्तमें देनेसे लोग प्रायः पुस्तकका आदर नहीं करते, उसको पढते नहीं । उपर्युक्त प्रकारसे पुस्तकें पढ़नेके लिये दी जायँ तो लोग उनको पढ़ते हैं । किसीको कोई पुस्तक बहुत अच्छी लगे और वह लेना चाहे तो उसको वह पुस्तक दे दो । इस तरह पुस्तकोंका प्रचार करना चाहिये ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे

|
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन अमावस्या, वि.सं.२०७३, रविवार
दिनचर्या और आयुश्चर्या



(गत ब्लॉगसे आगेका)

वानप्रस्थ-आश्रमके बाद संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे । इसमें परिग्रह एवं कंचन-कामिनीका सर्वथा त्याग कर दे । भिक्षासे ही जीवन-निर्वाह करे । समयपर अपने-आप जो कुछ भिक्षा मिल जाय, उसीमें सन्तोष कर ले और रात-दिन परमात्माके चिन्तनमें, भजन-स्मरणमें, सद्‌ग्रन्थोंके स्वाध्यायमें लगा रहे ।

इन चारों आश्रमोंमें एक-एक बातकी मुख्यता है । ब्रह्मचर्य-आश्रममें ‘गुरु-आज्ञापालन’, गृहस्थ-आश्रममें ‘अतिथि-सत्कार’, वानप्रस्थ-आश्रममें ‘तपस्या’ और संन्यास-आश्रममें ‘ब्रह्म-चिन्तन’ मुख्य है । इन चारों आश्रमोंमें मुख्य दो ही आश्रम हैं‒गृहस्थ और संन्यास । ब्रह्मचर्य-आश्रम ‘गृहस्थ’ की तैयारीके लिये है और वानप्रस्थ-आश्रम ‘संन्यास’ की तैयारीके लिये है ।

प्रश्न‒आजकल मनुष्य प्रायः सौ वर्षतक जीवित नहीं रहता; अतः चारों आश्रमोंका पालन कैसे किया जाय ?

उत्तर‒वर्तमानमें मनुष्य अठारह वर्षकी आयुतक ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए विद्याध्ययन करे । उसके बाद शास्त्र-मर्यादाके अनुसार, अपनी जाति, गोत्र आदिको देखकर विवाह करे अर्थात् गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करे । पैंतीस-चालीस वर्षकी अवस्थामें किसीकी स्त्री मर जाय तो वह दूसरा विवाह न करे; क्योंकि दूसरी स्त्री पहली स्त्रीके बच्चोंका पालन करेगी या नहीं, इसका क्या पता ? पैंतीस-चालीस वर्षकी उम्रमें वानप्रस्थ-आश्रममें चला जाय । वानप्रस्थमें स्त्री-पुरुष दोनों संयमसे रहें । फिर अलिंग-संन्यास ग्रहण करे अर्थात् काम-धंधा छोड़कर संयमपूर्वक संन्यासीकी तरह ही जीवन बिताये ।

प्रश्न‒इन चारों आश्रमोंकी मर्यादामें चलनेसे क्या लाभ है और न चलनेसे क्या हानि है ?

उत्तर‒चारों आश्रमोंकी मर्यादामें चलनेसे स्वाभाविक संयम होता है । संयमसे तेज बढ़ता है, शक्ति बढ़ती है, लोक-परलोकका सुधार होता है । परन्तु मर्यादामें न चलनेसे संयम नहीं रहता, जिससे उच्छृंखलता बढ़ती है और मनुष्य-जीवन पशु-पक्षियोंकी तरह ही हो जाता है । अतः चारों आश्रमोंका पालन जरूर करना चाहिये; क्योंकि चारों आश्रमोंका उद्देश्य कल्याणमें है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे

|
।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७३, शनिवार
दिनचर्या और आयुश्चर्या


आयुश्चर्या
(गत ब्लॉगसे आगेका)

भगवान्‌ने, शास्त्रोंने, महर्षियोंने, महापुरुषोंने मनुष्योंको मिली हुई आयुका सदुपयोग करनेके लिये उसके चार विभाग कर दिये हैं अर्थात् मनुष्योंकी आयुश्चर्याको चार आश्रमोंमें विभक्त कर दिया है‒ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ।

पहला विभाग है‒ब्रह्मचर्य-आश्रम । एकसे पचीस वर्षतक मनुष्यको ब्रह्मचारीके नियमोंका एवं गुरु-आज्ञाका पालन करते हुए विद्याध्ययन करना चाहिये । उसे ब्रह्मचर्य-आश्रममें शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक, दैशिक, आध्यात्मिक आदि उन्नतिके लिये सब तरहकी योग्यताका सम्पादन करना चाहिये ।

ब्रह्मचर्य-आश्रममें जो ब्रह्मचारी सांसारिक भोगोंको बिना ही भोगे विचारद्वारा उनका त्याग कर सकता है उसको अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सीधे ही संन्यास-आश्रममें प्रवेश करना चाहिये । परन्तु जो ब्रह्मचारी विचारपूर्वक भोगोंका त्याग नहीं कर सकता, अपनी वृत्तियोंको भोगोंसे उपरत नहीं कर सकता, जिसके मनमें बार-बार भोगोंकी वृत्तियाँ आती हैं, उसको गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करना चाहिये । उसको चाहिये कि वह विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य-आश्रमका समापन करके भोगोंका ज्ञान करनेके उद्देश्यसे ही गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करे और शास्त्र तथा कुल-मर्यादाके अनुसार विवाह करे ।

गृहस्थ-आश्रम पचीस वर्षका है । इन पचीस वर्षोंमें मनुष्य शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार न्याययुक्त भोग भोगे, द्रव्यका उपार्जन करे तथा द्रव्यका यथोचित व्यय करे । अतिथि-सत्कार करे । पिताके धनका आश्रय न ले, प्रत्युत स्वयंके उपार्जित धनसे ही माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र आदिका पालन-पोषण करे । यद्यपि पिताका धन लेना कोई पाप नहीं है, तथापि मनुष्यको गृहस्थ-आश्रममें प्रवेशसे पहले ही ऐसी योग्यता प्राप्त कर लेनी चाहिये, जिससे वह खुदका निर्वाह स्वयं (अपने पुरुषार्थसे) कर सके किसीपर निर्भर न रहे । पिताके धनको श्राद्ध-तर्पण, यज्ञ, दान आदिमें तथा कुआँ, बगीचा, धर्मशाला आदि बनवानेमें खर्च करे ।


गृहस्थ-आश्रमका उपभोग करके तपस्या करनेके लिये वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करना चाहिये । वानप्रस्थ-आश्रम पचीस वर्षका है और यह सरदी-गरमी, वात-वर्षा, भूख-प्यास आदि सब प्रकारकी प्रतिकूलताओंको सहनेकी शक्ति सम्पादन करनेके लिये है । जैसे‒सरदीके दिनोंमें एक घड़ेके तलेमें छेद करके उसको जलसे भरकर एक तख्तेपर रख दे और मध्यरात्रिमें दो-तीन घण्टेतक उस घड़ेकी जलधाराका सेवन करे अथवा आकण्ठ जलमें खड़ा रहे । वर्षाकालमें पर्वतकी चोटीपर बैठे । गरमीके दिनोंमें पंचाग्नि तपे अर्थात् ऊपर सूर्य तपता हो और नीचे चारों तरफ कण्डोंकी अग्नि जलती रहे । ऐसी तपश्चर्या न कर सके तो कम-से-कम भूख-प्यासको सह सके और संन्यास-आश्रमका ठीक पालन हो सके‒ऐसा सहिष्णु तो बनना ही चाहिये ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे

|