।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७४, रविवार
रम्भा-तृतीया
संसार जा रहा है...!



भगवान्‌ स्वयं कहते हैं–‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९/४) । भगवान्‌ सब जगह हैं–इस बातको आप मान लें । भगवान्‌ सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं, सब समयमें हैं तो अभी भी हैं, सबमें हैं तो अपनेमें भी हैं और सबके हैं तो मेरे भी हैं । केवल इस बातको आप मान लें । एक और बात है सज्जनो ! जो सबको मिल सकता है, वही हमें मिल सकता है । किसीको मिले और किसीको न मिले, वह हमारेको नहीं मिल सकता । सांसारिक चीजें सबको समानरूपसे नहीं मिल सकतीं, पर परमात्मा सबको समानरूपसे मिल सकते हैं । पहले वेदव्यासजी, शुकदेवजी, सनकादिक आदि बड़े-बड़े महापुरुषोंको जो परमात्मतत्त्व मिला है, वही परमात्मतत्त्व आज भी मिलेगा । अभी वर्तमानमें किसी महापुरुषको जो तत्त्व मिला है, वही तत्त्व हमारेको भी मिलेगा । कारण कि परमात्मा सब जगह हैं, सब समयमें हैं, सबमें हैं, सबके हैं । वे परम दयालु हैं और सर्वसमर्थ हैं । इस प्रकार उनको मानकर उनके नामका जप करें और साथ-साथ यह कहें कि हे नाथ ! प्रकट हो जाओ । जैसे बालक अपनी माँके लिये व्याकुल हो जाता है कि माँ कब मिलेगी, ऐसे ही हम उनके लिये व्याकुल हो जायँ कि हे नाथ ! आप कब प्रकट होंगे ! आप यहाँ हैं, मेरेमें हैं, मेरे हैं और फिर मैं दुःख पा रहा हूँ !


हमने संतोंसे सुना है कि जो परमात्माकी सत्ताको दृढ़तासे स्वीकार कर लेता है कि परमात्मा हैं, तो उसको परमात्मा मिल जाते हैं । परन्तु साथ-साथ संसारकी सत्ताको मानते रहनेसे परमात्माकी प्राप्तिमें देरी लगती है । वास्तवमें संसार है नहीं, मिट रहा है–यह बात विशेष ध्यान देनेकी है । यह बात मैं बहुत बार कहता हूँ । बहुत बार कहनेका मतलब है कि आप इसको पक्की मान लें । यह संसार एक क्षण भी टिकता नहीं है, हरदम नष्ट हो रहा है । जितने भी प्राणी जी रहे हैं, वे सब-के-सब मौतकी तरफ जा रहे हैं, मर रहे हैं । हम कल जितने जीते थे, उतने आज जीते हुए नहीं हैं । आठ पहर हमारा मर गया अर्थात् मरना नजदीक आ गया । हमारे जीनेका समय चौबीस घंटा बीत गया । मात्र संसारमें स्थावर-जंगम, जड़-चेतन जितनी चीजें दिखती हैं, वे सब-की-सब अभावमें जा रही हैं और एक दिन उनका पूरा आभाव हो जायगा । वास्तवमें तो उनका प्रतिक्षण ही आभाव हो रहा है । जैसे, आगमें लकड़ी जल रही हो तो घुआँ निकलता है, वह ज्वाला हो जायगा, ज्वालामें जलते-जलते लकड़ी अंगार बन जायगी, अंगारके कोयले बन जायँगे, कोयलोंकी राख हो जायगी । ऐसे ही सब-का-सब संसार कालकी अग्निमें जल रहा है, अभावमें जा रहा है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे