।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७४, शनिवार
प्रार्थना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

हे नाथ ! जो कुछ भी हमें मिलता है, आपकी कृपासे ही मिलता है । परन्तु उसको हम अपना मान लेते हैं कि यह तो हमारा ही है । यह आपकी खास उदारता और हमारी खास भूल है ! महाराज ! आपकी देनेकी रीति बड़ी विलक्षण है ! सब कुछ देकर भी आपको याद नहीं रहता कि मैंने कितना दिया है ? आपके अंतःकरणमें हमारे अवगुणोंकी छाप ही नहीं पड़ती । आपका अंतःकरणरूपी कैमरा कैसा है, इसको आप ही जानते हो ! उसमें अवगुण तो छपते ही नहीं, गुण-ही-गुण छपते हैं । ऐसा आपका स्वभाव है ! सिवाय आपमें अपनेपनके  और हमारे पास क्या है महाराज ! आप हमें अपना जानते हैं, मानते हैं, स्वीकार करते हैं तभी काम चलता है नाथ ! नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती ! हम जी भी नहीं सकते थे ! केवल आपकी कृपाका ही आसरा है, तभी जीते हैं–

आप कृपा को आसरो, आप कृपा को जोर ।
आप बिना दिखे नहीं,  तीन लोक में ओर ॥

कृपा करके भी आपकी कृपा तृप्त नहीं होती–‘जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती’ (मानस, बालकाण्ड २८/२) ! ऐसी कृपाके कारण ही आप कृपा कर रहे हो ! आप हमारे भीतरकी सब बातें पूर्णतया जानते हो, पर जानते हुए भी उधर दृष्टी नहीं डालते और ऐसा बर्ताव करते हो कि मानो आपको पता ही नहीं, आप जानते ही नहीं ! आपकी कृपा ही आपको मोहित कर देती है । आप अपने ही गुणोंसे मोहित हो जाते हो । आप अपना किया हुआ उपकार ही भूल जाते हो । अपनी दी हुई वस्तुको भी भूल जाते हो । देते तो आप हो, पर हम मान लेते हैं कि यह तो हमारी ही है ! ऐसे कृतघ्न, गुणचोर हैं हम तो महाराज ! पूत कपूत हो चाहे सपूत हो, पूत तो है ही । पूत कभी अपूत नहीं हो सकता । आपने गीतामें कहा है कि जीव सदासे मेरा ही अंश है–‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ । अतः अपना पूत जानकर कृपा करो ।

हे प्रभो ! हम आपके क्या काम आ सकते हैं ? क्या आपका कोई काम अड़ा हुआ है, जो हमारेसे निकलता हो ? क्या हमारी योग्यता आपके कोई काम आ सकती है ? यह तो केवल हमारा अभिमान बढ़ानेके काम आती है । आपकी दी हुई चीजको हम अपनी मान लेते हैं और अपनी मान करके अभिमान कर लेते हैं–ऐसे कृतघ्न हैं हम ! फिर भी आप आँख मीच लेते हो । आप उधर खयाल ही नहीं करते । आपके ऐसे स्वभावसे ही हम जी रहे हैं !

हे नाथ ! हम आपसे क्या कहें ? हमारे पास कहनेलायक कोई शब्द नहीं है, कोई योग्यता नहीं है । आप जंगलमें रहनेवाले किरातोंके वचन भी ऐसे सुनते हो, जैसे पिता अपने बालककी तोतली वाणी सुनाता है–

बेद बचन मुनि  मन  अगम  ते  प्रभु  करुना ऐन ।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन ॥
                                 (मानस, अयोध्याकाण्ड १३६)

इसी तरह हे नाथ ! हमें कुछ कहना आता ही नहीं । हम तो बस, इतना ही जानते हैं कि जिसका कोई नहीं होता, उसके आप होते हो–

बोल न जाणूं कोय अल्प बुद्धि मन वेग तें ।
नहिं जाके हरि होय या तो मैं जाणूं सदा ॥
                                                 (करुणासागर ७४)

नारायण !     नारायण !!    नारायण !!!

–‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
  
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७४, शुक्रवार
प्रार्थना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

आपने वृत्रासुर, प्रह्लाद, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधर वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रजकी गोपियाँ आदिका भी उद्धार कर दिया, यह देखकर हमारी हिम्मत होती है कि आप हमारा भी उद्धार करेंगे । जैसे अत्यंत लोभी आदमी कूड़े-कचड़ेमें पड़े पैसेको भी उठा लेता है, ऐसे ही आप भी कूड़े-कचड़ेमें पड़े हम-जैसोंको उठा लेते हो । थोड़ी बातसे ही आप रीझ जाते हो–‘तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें’ (मानस, बालकाण्ड ३४२/२) । कारण कि आपका स्वाभाव है–

रहती न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ॥
                                                (मानस,बालकाण्ड २९/३)

अगर आपका ऐसा स्वाभाव न हो तो हम आपके नजदीक भी न आ सकें; नजदीक आनेकी हिम्मत भी न हो सके ! आप हमारे अवगुणोंकी तरफ देखते ही नहीं । थोड़ा भी गुण हो तो आप  उस तरफ देखते हो । वह थोड़ा भी आपकी दृष्टिसे है । हे नाथ ! हम विचार करें तो हमारेमें राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, अभिमान आदि कितने ही दोष भरे पड़े हैं ! हमारेसे आप ज्यादा जानते हो, पर जानते हुए भी आप उनको मानते नहीं–‘जन अवगुन प्रभु मान न काऊ’, इसीसे हमारा काम चलता है प्रभो ! कहीं आप देखने लग जाओ कि यह कैसा है, तो महाराज ! पोल-ही-पोल निकलेगी !

हे नाथ ! बिना आपके कौन सुननेवाला है ? कोई जाननेवाला भी नहीं है ! हनुमान्‌जी विभीषणसे कहते हैं कि मैं चंचल वानरकुलमें पैदा हुआ हूँ । प्रातःकाल जो हमलोगोंका नाम भी ले ले तो उस दीन उसको भोजन न मिले ! ऐसा अधम होनेपर भी भगवान्‌ने मेरेपर कृपा की, फिर तुम तो पवित्र ब्राह्मणकुलमें पैदा हुए हो ! कानोंसे ऐसी महिमा सुनकर ही विभीषण आपकी शरणमें आये और बोले–

श्रवन सुजसु सुनी आयउँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरती हरन सरन सुखद रघुबीर ॥
                                         (मानस, सुन्दरकाण्ड ४५)

         जो आपकी शरणमें आ जाता है, उसकी आप रक्षा करते हो, उसको सुख देते हो, यह आपका स्वाभाव है–

    ऐसो उदार को जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं ॥
                                              (विनयपत्रिका १६२)

यहि दरबार दीन को आदर, रीति सदा चलि आई ।
                                           (विनयपत्रिका १६५/५)

हरेक दरबारमें दीनका आदर नहीं होता । जबतक हमारे पास कुछ धन-सम्पत्ति है, कुछ गुण है, कुछ योग्यता है तभीतक दुनिया हमारा आदर करती है । दुनिया तो हमारे गुणोंका आदर करती है, हमारा खुदका (स्वरूपका) नहीं । परन्तु आप हमारा खुदका आदर करते हो, हमें अपना अंश मानते हो–‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७), ‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तरकाण्ड ८६/२) । हमें अपना अंश मानते ही नहीं, स्पष्टतया जानते हो और अपना जानकर कृपा करते हो । हमारे अवगुणोंकी तरफ आप देखते ही नहीं  । बच्‍चा कैसा ही हो, कुछ भी करे, पर ‘अपना है’–यह जानकर माँ कृपा करती है, नहीं तो मुफ्तमें कौन आफत मोल ले महाराज ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)            
 –‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
  
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।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७४, गुरुवार
प्रार्थना



हे नाथ ! अब तो आपको हमारेपर कृपा करनी ही पड़ेगी । हम भले-बुरे कैसे ही हों, आपके ही बालक हैं । आपको छोड़कर हम कहाँ जाय ? किससे बोलें ? हमारी कौन सुने ? संसार तो सफा जंगल है । उससे कहना अरण्यरोदन (जंगलमें रोना) है । आपके सिवाय कोई सुननेवाला नहीं है । महाराज ! हम किससे कहें ? हमारेपर किसको दया आती है ? अच्छे-अच्छे लक्षण हों तो दूसरा भी कोई सुन ले । हमारे-जैसे दोषी, अगगुणीकी बात कौन सुने ? कौन अपने पास रखे ? हे गोविन्द-गोपाल ! यह तो आप ही हैं, जो गायों और बैलोंको भी अपने पास रखते हैं, चारा देते हैं । हम तो बस, बैलकी तरह ही है ! बिलकुल जंगली आदमी हैं ! आप ही हमें निभाओगे । और कौन है, किसकी हिम्मत है कि हमें अपना ले ? ऐसी शक्ति भी किसमें है ? हम किसीको क्या निहाल करेंगे ? हमें अपनाकर भी कोई क्या करेगा ? हमें रोटी दे, कपड़ा दे, मकान दे, खर्चा करे; और हमारेसे क्या मतलब सिद्ध होगा ? ऐसे निकम्मे आदमीको कौन सँभाले ? कोई गुण-लक्षण हों तो सँभाले । यह तो आप दया करते हैं, तभी काम चलता है, नहीं तो कौन परवाह करता है ?

हे प्रभो ! थोड़ी-सी-योग्यता आते ही हमें अभिमान हो जाता है ! योग्यता तो थोड़ी होती है, पर मान लेते हैं कि हम तो बहुत बड़े हो गये, बड़े योग्य बन गये, बड़े भक्त बन गये, बड़े वक्ता बन गये, बड़े चतुर बन गये, बड़े होशियार बन गये, बड़े विद्वान बन गये, बड़े त्यागी, विरक्त बन गये ! भीतरमें यह अभिमान भरा है नाथ ! आपकी ऐसी बात सुनी है कि आप अभिमानसे द्वेष करते हो और दैन्यसे प्रेम करते हो । अगर आपको अभिमान सुहाता नहीं तो फिर उसको मिटा दो, दूर कर दो । बालक कीचड़से सना हुआ हो और गोदीमें जाना चाहता हो तो माँ ही उसको धोयेगी और कौन धोयेगा ? क्या बालक खुद स्नान करके आयेगा, तब माँ उसको गोदीमें लेगी ? आपको हमारी अशुद्धि नहीं सुहाती तो फिर कौन साफ करेगा ? आपको ही साफ करना पड़ेगा महाराज !

हे नाथ ! हमारे सब कुछ आप ही हो । आपके सिवाय और कौन है, जो हमारे-जैसेको गले लगाये ? इसलिये हे प्रभो ! अपना जानकर हमारेपर कृपा करो । एक मारवाड़ीमें कहावत है–‘गैलो गूँगो बावलो, तो भी चाकर रावलो ।’ हम कैसे ही हैं, आपके ही हैं । आप अपनी दयासे ही हमें सँभालो, हमारे लक्षणोंसे नहीं । जिन भरतजीकी रामजीसे भी ज्यादा महिमा कही गयी है, वे भी कहते हैं–

जौं  करनी  समुझै  प्रभु   मोरी ।
नहीं निस्तार कलप सत कोरी ॥
जन अवगुण प्रभु मान न काऊ ।
दीन  बंधु  अति  मृदुल  सुभाऊ ॥
                                     (मानस, उत्तरकाण्ड १/३)

आपके ऐसे मृदुल स्वभावको सुनकर ही आपके सामने आनेकी हिम्मत होती है । अगर अपनी तरफ देखें तो आपके सामने आनेकी हिम्मत ही नहीं होती ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)            
 –‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
  
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