।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
                  जया एकादशी-व्रत (सबका)
              सबके अनुभवकी बात 


 (गत ब्लॉगसे आगेका)

 जो अनेक योनियोंमें अनेक सुख-दुःखोंको भोगता है, वह स्वंय किसीके साथ लिप्त नहीं होता, कहीं नहीं फँसता । अगर वह लिप्त हो जाय, फँस जाय तो फिर चौरासी लाख योनियोंको कौन भोगेगा ? यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि हरदम जाग्रतमें भी हम नहीं रहते, हरदम स्वप्नमें भी हम नहीं रहते, हरदम सुषुप्तिमें भी हम नहीं रहते, हरदम मूर्च्छामें भी हम नहीं रहते और हरदम समाधिमें भी हम नहीं रहते । तात्पर्य है कि स्वयं इन सब अवस्थाओंसे अलग और इनको जाननेवाला है । जो सम्पूर्ण अवस्थाओं, सम्पूर्ण परिस्थितियों, सम्पूर्ण क्रियाओं तथा सम्पूर्ण पदार्थोंके संयोग-वियोगको जाननेवाला है, वह स्वयं एक ही रहता है । अगर स्वयं एक अवस्थामें लिप्त हो जाय तो वह दूसरी अवस्था में कैसे जायगा और उससे अपनेको अलग अनुभव कैसे करेगा ? परन्तु वह दूसरी अवस्थामें जाता है और उससे अपनेको अलग अनुभव करता है । अतः मैं इन सब अवस्थाओंसे, परिस्थितियोंसे, क्रियाओंसे, पदार्थोंसे अलग हूँ – इस अपने अनुभवका ही आदर करना है, इसको ही महत्व देना है, इसको ही स्वीकार करना है । इसको सीखना नहीं है । सीखनेसे लाभ नहीं होगा, प्रत्युत अभिमान हो जायगा । इन अवस्थाओं आदिसे अपनेको अलग करने का नाम ही ‘ज्ञान’ है और इनके साथ मिल जाने का नाम ही ‘अज्ञान’ है ।

  स्वयंमें कर्तृत्व और लिप्तता नहीं है । यह प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है कि मनुष्य कभी कुछ करता है और कभी कुछ करता है, कभी किसीमें लिप्त होता है और कभी किसीमें लिप्त होता है । कर्तृत्व और लिप्तता कभी किसीमें निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत बदलते रहते हैं । मनुष्य जो भी करता है, उसकी समाप्ति होती ही है । वह जिसमें भी लिप्त होता है, उसका वियोग (उपरति) होता ही है । जैसे, भोजनमें पहले बड़ी लिप्तता, रूचि रहती है । परन्तु ज्यों-ज्यों भोजन करते हैं, त्यों-त्यों वह रूचि कम होती जाती है और अन्तमें उससे अरुचि हो जाती है । इस प्रकार कर्तृत्व और लिप्तता निरन्तर नहीं रहती, पर स्वयं निरन्तर रहता है । स्वयंमें अकर्तृत्व और निर्लिप्तता स्वतःसिद्ध है । मनुष्य कर्ता होता है, तब भी स्वयं रहता है । मनुष्य कर्ता नहीं होता, तब भी स्वयं रहता है । लिप्त होता है, तब भी स्वयं रहता है । लिप्त नहीं होता, तब भी स्वयं रहता है । हम कभी बैठते हैं, कभी सोते हैं, कभी कहीं जाते हैं, कभी किसीसे मिलते हैं तो ये अलग-अलग हुए, पर हम एक ही रहे । अतः स्वयं वही रहता है – यह बात बिलकुल अपने विवेकसे सिद्ध है । इसमें क्रियाकी क्या आवश्यकता है ?


 तात्पर्य है कि तत्व स्वतःस्वाभाविक है । उसकी प्राप्तिमें कोई क्रिया नहीं है, कोई परिश्रम नहीं है । वह सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिमें ‘है’ (सत्ता) रूपसे विद्यमान है । देश, काल आदि तो नहीं हैं, पर तत्व है । देश, काल आदि तो विकारी हैं, पर तत्व निर्विकाररूपसे ज्यों-का-त्यों रहता है । जब साधक अपने आपको खो देता है अर्थात उसमें मैंपन, परिच्छिन्नता, व्यक्तित्व नहीं रहता, तब वह तत्व रह जाता है अर्थात अनुभवमें आ जाता है । 

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)                
 –‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे