।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७४,बुधवार
         अन्तःकरणकी शुद्धिकाउपाय


(गत ब्लॉगसे आगेका)

         श्रोता–अन्तःकरण शुद्ध हुए बिना उससे सम्बन्ध टूट सकता है क्या ?

स्वामीजी–वास्तवमें तो सम्बन्ध है ही नहीं, पर सम्बन्ध मान लिया है । मान हुआ सम्बन्ध नहीं माननेसे मिट जायगा । इसमें शुद्धि-अशुद्धिसे क्या लेन-देन !

श्रोता–यह मान्यता बिना अन्तःकरण शुद्ध हुए भी हो सकती है क्या ?

स्वामीजी–बिलकुल हो सकती है । आपके भीतर यह भाव होना चाहिये कि मेरी मुक्ति हो जाय, मुझे बोध हो जाय । मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय, उससे सम्बन्ध विच्छेद हो जाय–यह बात वास्तवमें सम्बन्धको दृढ़ करनेवाली है । किसीको मिटाना चाहते हो तो मिटानेसे पहले उसकी सत्ता मानते हो । अगर सत्ता नहीं मानते तो फिर मिटाते किसको हो ? सत्ता मानते हो, तभी तो आप सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहते हो । सम्बन्ध है–यह मान्यता होती है, तब उसको दूर करते हो । मैं कहता हू कि सम्बन्ध है ही नहीं ! उस (शास्त्रीय) प्रणालीमें और इस प्रणालीमें यही खास फरक है । जैसे, वेदान्त-ग्रन्थोंमें आता है कि ‘अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चमं प्रपञ्चयते’ अध्यारोप और अपवाद–इन दोनोंसे निष्प्रपञ्चका प्रपञ्च होता है अर्थात् परमात्माका विवेचन होता है । तो मैं कहता हूँ कि जब अपवाद ही करना है तो अध्यारोप करो ही क्यों ?

श्रोता–मेरा प्रश्न यही उठ रहा है कि अन्तःकरणकी शुद्धि हुए बिना मान्यता बनती नहीं ।

स्वामीजी–मैं कहता हूँ कि बनती है । अन्तःकरणको लेकर बनाओगे तो नहीं बनेगी । देखो, सनकादिकोंने जाकर ब्रह्माजीसे प्रश्न किया कि मन विषयोंमें फँसा हुआ है और विषय मनमें बसे हुए हैं तो फिर मनको विषयोंसे अलग कैसे करें ? तो उत्तर दिया कि इन दोनोंसे ही सम्बन्ध-विच्छेद कर दो–‘मद्रूप उभयं त्यजेत्’ (श्रीमद्भा. ११/१३/२६) । यही तो मैं कहता हूँ । इस साधनको क्यों नहीं पकड़ते आप ? यह शास्त्रकी बात है, मेरे घरकी नहीं है । मेरे घरकी इतनी ही बात है कि इसीको जोरसे पकड़ना चाहिये, दूसरेको नहीं । अध्यारोप करो, उसको रखो, फिर उसको दूर करो; क्यों आफतमें फँसते हो ? है ही नहीं हमारेमें । इससे साधककी जल्दी सिद्धि होती है, इसलिये इसका आदर करो । यह प्रणाली मेरी नहीं है और न किसीका ठेका है इसपर । यह तो सामान्य बात है ।

श्रोता–महाराज ! जहाँ जिज्ञासा होती है, मान्यता होती है, वहींपर हमारी भोगोंमें रुचि पैदा होती है ।

स्वामीजी–भोगोंकी रुचि है, सुखभोगकी इच्छा है–यही घातक है । इसका आप त्याग नहीं करते, इसीलिये सम्बन्ध-विच्छेदकी बात कठिन दीखती है, नहीं तो यह बहुत सुगम और बहुत सरल है ।

श्रोता–यह सुखभोगकी इच्छा ही खास बीमारी है महाराजजी ।

स्वामीजी–खास बीमारी है तो इसको दूर करो । वास्तवमें जब आपकी समझमें आ गयी कि यह बीमारी है तो बीमारी आपसे आपसे दूर हो गयी । आँखमें लगा हुआ अंजन आँखसे नहीं दीखता । अंजन आँखसे तब दीखता है, जब वह आँखसे दूर हो–अँगुलीपर लगा हो ।

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे