(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रीमधुसुदानाचार्यके ‘भक्तिरसायन’ ग्रन्थमें आया है‒
कामक्रोधभयस्नेहहर्षशोकदयाऽऽदयः ।
तापकाश्चित्तजतुनस्तच्छान्तौ कठिनं
तु तत् ॥
(१
। ५)
‘काम, क्रोध,
भय, स्रेह, हर्ष,
शोक, दया आदि भाव चित्तरूपी लाखको तपाकर द्रवित
करनेवाले है । भावरूपी उष्णताके शान्त होनेपर चित्तरूपी लाख ज्यों-की-त्यों कठोर हो जाती है ।’
लाख कठोर होती है, पर तापक द्रव्य मिल
जाय तो वह पिघल जाती है । मोम भी थोड़ा-सा ताप लगनेपर पिघल जाता
है । यदि उसके ऊपर रंग लगाकर दबायें तो उसपर थोड़ा-सा रंग बैठ
जाता है, पर नखसे उतारनेपर वह रंग उतर जाता है । अगर एक कटोरीमें
मोम डालकर उसको आगपर रख दें और उसमें रंग डाल दें तो वह रंग मोममें एकदम मिल जाता है
। मोम ठण्डा होनेपर भी वही रंग दीखता है । ऐसे ही जिन भोगोंको भोगनेमें, जिन घटनाओंमें हमारा चित्त ज्यादा पिघला है, हम उसमें
ज्यादा तल्लीन हुए हैं, उनका रंग हमारे मनमें बैठा हुआ है । अतः
उनकी याद ज्यादा आती है । भूतकालमें हमने जो भोग भोगा है, वह
अब बिलकुल नहीं है; परन्तु वह पिघले हुए चित्तमें बैठ गया है,
इसलिये वह बड़ी तेजीसे आता है । रागपूर्वक, आसक्तिपूर्वक
भोगा गया भोग कई वर्ष बीतनेपर भी ज्यों-का-त्यों दीखता है । ज्यों-का-त्यों
दीखनेपर भी वह भूतकालमें ही है, अभी तो वह है ही नहीं !
यह उसको हटानेकी बहुत बढ़िया युक्ति है ! इसलिये
आप इसका अनुभव करें कि वह अभी नहीं है । यह बिलकुल शंकारहित, पक्की बात है कि वह घटना अभी नहीं है, वह वस्तु अभी नहीं
है, वह क्रिया अभी नहीं है, वह संग अभी
नहीं है । हम उस घटना आदिको मिटाना चाहते है, चित्तको ठीक करना
चाहते है । परन्तु उस घटना आदिको मिटानेसे वह नहीं मिटेगी । चित्तको ठीक करनेसे वह
ठीक नहीं होगा । उसको मिटानेकी, ठीक करनेकी चेष्टा करना तो उसको
सत्ता देकर दृढ़ करना है । वास्तवमें वह अभी है ही नहीं । जब वह है ही नहीं,
तो फिर चंचलता क्या रही ? आश्चर्यकी बात है कि
जो नहीं है, उसीसे हम दुःखी हो रहे है ! जिसका अभाव है, उसीसे हम भयभीत हो रहे है !
काम, क्रोध, भय,
स्नेह, हर्ष, शोक और दया‒ये सात बातें है, जिनसे चित्त पिघलता है (इन सबमें मुख्य राग-द्वेष हैं) । कामनासे कोई भोग भोगते हैं तो कामना जितनी तेज होती है, उतना ही चित्त ज्यादा पिघलता है और उतना ही वह ज्यादा याद आता है । क्रोध तेजीका
आता है तो चित्त ज्यादा पिघलता है । कभी किसी कारणसे जोरसे भय लगता है तो वह भी भीतर
बैठ जाता है, जल्दी निकलता नहीं । ऐसे ही किसीसे ज्यादा स्नेह
होता है तो चित्त पिघल जाता है । मित्रके मिलनेसे बड़ा हर्ष होता है तो इससे चित्त पिघलता
है । कोई मर जाता है और उसका बहुत ज्यादा शोक होता है तो वह चित्तमें बैठ जाता है ।
थोड़ा शोक हो तो थोड़ा बैठता है । किसीको देखकर दया आ जाती है तो वह भी चित्तमें बैठ
जाती है । परन्तु ‘अभी वह नहीं है’‒यह बिलकुल पक्की बात है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे
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