।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०७४,शनिवार
            विजयादशमी, एकादशी-व्रत कल है 
गुरु-विषयक प्रश्नोत्तर



      (गत ब्लॉगसे आगेका)


वास्तवमें परीक्षा गुरुकी नहीं होती, प्रति अपनी होती है । इस विषयमें एक कहानी है । एक युवावस्थाके राजा थे । उन्होंने अपने राज्यके बड़े-बूढ़े और समझदार आदमियोंको बुलाया और उनसे पूछा कि आप सच्ची बात बताओ कि मेरे दादाजीका राज्य ठीक हुआ कि मेरे पिताजीका राज्य ठीक हुआ अथवा मेरा राज्य ठीक हुआ ? आपने तीनोंके राज्य देखें हैं तो किसका राज्य श्रेष्ठ हुआ ? यह सुनकर सब चुप हो गये । तब उनमेंसे एक बूढ़ा आदमी बोला कि महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं, आप हमारे मालिक हो । आपकी बातका निर्णय हम कैसे करें ? हम आपकी परीक्षा नहीं कर सकते, पर मेरी बात पूछें तो मैं अपनी बात बता सकता हूँ । राजाने कहाअच्छा, तुम अपनी बात बताओ । वह बूढ़ा आदमी बोला कि जब आपके दादाजी राज्य करते थे, उस समय मैं बीस-पचीस वर्षका जवान था । हाथमें लाठी रखता था । कुश्ती करना, लाठी चलाना आदि सब मेरेको आता था । एक दिन मैं कहीं जा रहा था तो जंगलमें मैंने किसीके रोनेकी आवाज सुनी । आवाजसे पता चला कि कोई स्त्री रो रही है; क्योंकि स्त्रीका पंचम स्वर होता है, षड्ज स्वर नहीं होता । मैं उधर गया तो देखा कि अच्छे वस्त्रों एवं गहनोंसे सजी एक स्त्री बैठी रो रही है । मैंने पूछा कि तू रो क्यों रही है ? तो वह मेरेको देखकर एकदम डर गयी । मैंने उसको आश्वासन दिया कि बेटी, तुम डरो मत, अपनी बात बताओ । उसने बताया कि मैं अपने सम्बन्धियोंके साथ पीहरसे ससुराल जा रही थी । बीचमें सहसा डाकू आ गये और उनके तथा हमारे साथीयोंके बीचमें लड़ाई छिड़ गयी । मैं डरकर जंगलमें भाग गयी । अब मेरेको पता नहीं कि पीछे क्या हुआ ? अब मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ ? मेरेको पता नहीं कि पीहर किधर है और ससुराल किधर है ? मैंने उससे ससुरालका गाँव पूछा तो उसने गाँवका नाम बताया । मैंने कहा कि तेरे ससुरालका गाँव नजदीक ही है, मैं तेरेको पहुँचा दूँगा, डर मत । मैंने उसके ससुरका नाम पूछा तो उसने जमीनपर लिखकर बता दिया । मैंने कहा कि मैं तेरे ससुरको जानता हूँ । मैं पहुँचा दूँगा ।

रात्रिका समय था । मैं उस स्त्रीको लेकर उसके ससुरके घर पहुँचा । वहाँ सब चिन्ता कर रहे थे कि हम तो डाकुओंके साथ लड़ाईमें लग गये, उन्होंने हमारी बहुको मार डाला होगा ! उसका हजारों रुपयोंका गहना था, उसको लूट लिया होगा ! अब उसका पता कैसे मिले ? आदि-आदि । अपनी बहुको देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए । उस स्त्रीने भी घरकी स्त्रियोंसे कहा कि ये पिताकी तरह बड़े स्नेहपूर्वक, आदरपूर्वक मेरेको यहाँ लाये हैं । उन्होंने मेरेसे चार-पाँच सौ रुपये लेनेके लिये आग्रह किया तो मैंने कहा कि रुपयोंके लिये मैंने काम नहीं किया है, कोई मजदूरी नहीं की है, मैंने तो अपना कर्तव्य समझकर काम किया है । उनके बहुत आग्रह करनेपर भी मैंने कुछ लिया नहीं और चला गया । मेरे चित्तमें बड़ी प्रसन्नता रही कि आज मेरेसे एक अबलाकी सेवा बन गयी ! यह उस समयकी बात है, जब आपके दादाजी राज्य करते थे ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

 ‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०७४,शुक्रवार
                      श्रीदुर्गानवमी-व्रत
गुरु-विषयक प्रश्नोत्तर



      (गत ब्लॉगसे आगेका)


           प्रश्नगुरु बनानेसे वे शक्तिपात करेंगे; अतः गुरु बनाना जरुरी हुआ ?

उत्तरशक्तिपात कोई तमाशा नहीं है । वर्तमानमें शक्तिपातकी बात देखनेको तो दूर रही, पढ़नेको भी प्रायः मिलती नहीं ! एक सन्त थे । उनके पीछे एक आदमी पड़ा कि शक्तिपात कर दो । वे सन्त बोले कि शक्तिपात कोई मामूली चीज नहीं है; उसको तुम सह नहीं सकोगे, मर जाओगे । वह पीछे पड़ा रहा कि महाराज किसी तरह कर दो । सन्तने शक्तिपातका थोड़ा-सा असर डाला तो वह आदमी घबरा गया और चिल्लाने लगा कि मेरे स्त्री-पुत्र, माँ-बाप सब मिट गये ! संसार सब मिट गया ! मैं कहाँ जाऊँगा ? मेरेको बचाओ ! तात्पर्य है कि शक्तिपात करनेवाला भी मामूली नहीं होता और उसको सहनेवाला भी मामूली नहीं होता ।

प्रश्नचेला इसलिये बनाते हैं कि कोई ईसाई या मुसलमान न बने; अतः चेला बनानेमें क्या दोष है ?

उत्तरयह बिलकुल झूठी बात है ! जो ईसाई या मुसलमान बनना चाहते हैं वे गुरुके पास आयेंगे ही नहीं ! अगर चेला न बनानेके कारण कोई ईसाई या मुसलमान बन जाय तो गुरुको दोष नहीं लगेगा । परन्तु उसने चेला बनाकर उसको दूसरी जगह जानेसे रोक दिया और खुद उसका कल्याण नहीं कर सकायह दोष तो उसको लगेगा ही । चेला बनानेसे वह भगवान्‌के शरण न होकर गुरुके शरण हो गया, भगवान्‌के साथ सम्बन्ध न जोड़कर गुरुके साथ सम्बन्ध जोड़ लियायह बड़ा भारी दोष है ।

प्रश्न‘गुरु कीजै जान के, पानी पीजै छान के’ तो गुरुको जाननेका उपाय क्या है ?  गुरुकी परीक्षा कैसे करें ?

उत्तरगुरुकी परीक्षा आप नहीं कर सकते । अगर आप गुरुकी परीक्षा कर सकें तो आप गुरुके भी गुरु हो गये ! जो गुरुकी परीक्षा कर सके, वह क्या गुरुसे छोटा होगा ? परीक्षा करनेवाला तो बड़ा होता है । ऐसी स्थितिमें आपको चाहिये कि किसीको गुरु न बनाकर सत्संग-स्वाध्याय करो  और उसमें जो अच्छी बातें मिलें, उनको धारण करो । जिनका संग करनेसे परमात्मप्राप्तिकी लगन बढ़ती हो, दुर्गुण-दुराचार स्वतः दूर होते हों और सद्गुण-सदाचार स्वतः आते हों, भगवान्‌की विशेष याद आती हो, भगवान्‌पर श्रद्धा-विश्वास बढ़ते हों, बिना पूछे ही शंकाओंका समाधान हो जाता हो और जो हमसे कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखते हों, उन सन्तोंका संग करो । उनसे गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़े बिना उनसे लाभ लो । अगर वहाँ कोई दोष दिखे, कोई गड़बड़ी मालूम दे तो वहाँसे चल दो ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७४,गुरुवार
                           श्रीदुर्गाष्टमी
गुरु-विषयक प्रश्नोत्तर



      (गत ब्लॉगसे आगेका)


             विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना-
                               स्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः ।
             शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा-
                           स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे ॥
                                                                         (भर्तृहरिशतक)

‘जो वायु-भक्षण करके, जल पीकर और सूखे पत्ते खाकर रहते थे, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी स्त्रियोंके सुन्दर मुखको देखकर मोहको प्राप्त हो गये, फिर जो लोग शाली धान्य (सांठी चावल) को घी, दूध और दहीके साथ खाते हैं, वे यदि अपनी इन्द्रियका निग्रह कर सकें तो मानो विन्धायाचल पर्वत समुद्रपर तैरने लगा !’

ऐसी स्थितिमें जो जवान स्त्रियोंको अपनी चेली बनाते हैं, उनको अपने आश्रममें रखते हैं, उनका स्वप्नमें भी कल्याण हो जायगा‒यह बात मेरेको जँचती नहीं ! फिर उनके द्वारा आपका भला कैसे हो जायगा ? केवल धोखा ही होगा ।

प्रश्न‒ऐसा कहते हैं कि जीवन्मुक्त महात्मा भोग भी भोगे तो उसको दोष नहीं लगता । क्या यह ठीक है ?

उत्तर‒ऐसा सम्भव ही नहीं है । जीवन्मुक्त भी हो जाय और भोग भी भोगता रहे‒यह सर्वथा असम्भव बात है । भोग तो साधनकालमें ही छूट जाते हैं, फिर सिद्ध पुरुषको भोग भोगनेकी जरूरत भी क्यों पड़ेगी ? ऐसी बातें दम्भी-पाखण्डी लोग ही अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये फैलाते हैं । इसलिये रामायणमें आया है‒

मिथारंभ दंभ रत जोई ।      ता कहुँ संत कहइ सब कोई ॥
                            निराचार जो श्रुति पथ त्यागी । कलियुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड ९८/२,४)

पर त्रिय लंपट कपट सयाने ।   मोह द्रोह ममता लपटाने ॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर । देखा मैं चरित्र कलिजुग कर ॥
(मानस, उत्तरकाण्ड १००/१)

बुद्धाद्वैतसतत्त्वस्य         यथेष्टाचरणं यदि ।
शुनां तत्त्वदृशां चैव को भेदोऽशुचि भक्षणे ॥

‘यदि अद्वैत तत्त्वन रहा तो फिर अद्वैतका ज्ञान हो जानेपर भी यथेच्छाचार बना रहा तो फिर अशुद्ध वस्तु (मांस-मदिरा आदि) खानेमें यथेच्छारी तत्त्वज्ञ और कुत्तेमें भेद ही क्या रह गया ?’

                             यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत मैथुनम् ।
षष्टिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥
                         (सक्न्दपुराण, काशी पू ४०/१०७)

‘जो सन्यास लेनेके बाद पुनः स्त्रीसंग करता है, वह साठ हजार वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है ।’

भोगोंका कारण कामना है और कामनाका सर्वथा नाश होनेपर ही जीवन्मुक्ति होती है । भोगोंकी कामना तो साधककी भी आरम्भमें मिट जाती है । अगर किसी ग्रन्थमें ऐसी बात आयी हो कि जीवन्मुक्त भोग भी भोगे तो उसको दोष नहीं लगता, तो यह बात उसकी महिमा बतानेके लिये हैं, विधि नहीं है । इसका तात्पर्य भोग भोगनेमें नहीं है । जैसे, गीतामें (१८/१७) जीवन्मुक्तके लिये आया है कि ‘जिसका अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बंधता है’ तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जीवन्मुक्त महात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंको मार देता है !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?’ पुस्तकसे

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।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७४,बुधवार
गुरु-विषयक प्रश्नोत्तर



      (गत ब्लॉगसे आगेका)


प्रश्नक्या स्त्री किसीको गुरु बना सकती है ?

उत्तरस्त्रीको कोई गुरु नहीं बनाना चहिये । अगर बनाया हो तो छोड़ देना चहिये । स्त्रीको पति ही उसका गुरु है । शास्त्रोंमें आया है

गुरुरग्निर्द्विजातीनां   वर्णानां   ब्राह्मणो  गुरुः ।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां  सर्वस्याऽभ्यागतो गुरुः ॥
                                          (पद्मपुराण स्वर्ग ५१/५१, ब्रह्मपुराण ८०/४७)

‘अग्नि द्विजातियोंका गुरु है, ब्राह्मण चारों वर्णोंका गुरु है, एकमात्र पति ही स्त्रियोंका गुरु है और अतिथि सबका गुरु है ।’

वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः ।
पतिसेवा  गुरौ    वासो    गृहार्थोऽग्निपरिक्रिया ॥
                                                       (मनुस्मृति २/६७)

‘स्त्रियोंके  वैवाहिक विधिका पालन ही वैदिक-संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिकी सेवा ही गुरुकुलवास और गृह-कार्य ही अग्निहोत्र कहा गया है ।’

स्त्रीको पतिके सिवाय किसी भी पुरुषसे किसी भी प्रकारका भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये । स्त्रियोंसे प्रार्थना है कि वे कभी किसी साधुके फेरमें न पड़ें । आजकल बहुत ठगी, दम्भ, पाखण्ड हो रहा है । मेरे पास ऐसे पत्र भी आते हैं और भुक्तभोगी स्त्रियाँ भी आकर अपनी बात सुनाती हैं, जिससे ऐसा लगता है की वर्तमान समयमें स्त्रीके लिये गुरु बनाना अनर्थका मूल है ।

साधुको भी चाहिये कि वह किसी स्त्रीको चेली न बनाये । दीक्षा देते समय गुरुको शिष्यके हृदय आदिका स्पर्श करना पड़ता है, जबकि संन्यासीके लिये स्त्रीके स्पर्शका कड़ा निषेध है । श्रीमद्भागवतमें आया है कि हाड़-मांसमय शरीरवाली स्त्रीका तो कहना ही क्या है, लकड़ीकी बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करे और हाथसे स्पर्श करना तो दूर रहा, पैरसे भी स्पर्श न करे

पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि ।
                              (श्रीमद्भागवत ११/८/१३)

शास्त्रोंमें यहाँतक कहा गया है

मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिद्रियग्रामो       विद्वांसमपि     कर्षति ॥
                                                (मनु २/२१५)

‘मनुष्योंको चाहिये कि अपनी माता, बहन अथवा पुत्रीके साथ भी कभी एकान्तमें न रहें; क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल होती हैं, वे विद्वान मनुष्यको भी अपनी तरफ खींच लेती हैं ।’

संग न कुर्यात्प्रमदासु  जातु   योगस्य  पारं  परमारुरुक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥
                                                     (श्रीमद्भागवत ३/३१/३९)

‘जो पुरुष योगके परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवाके प्रभावसे आत्मा-अनात्माका विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोंका संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुषके लिये नरकका खुला द्वार बताया गया है ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

 ‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे

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आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७४,मंगलवार
गुरु-विषयक प्रश्नोत्तर



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प्रश्न–कई लोगोंको गुरुके  द्वारा कुण्डलिनी-जागरण आदिकी अलौकिक अनुभूतियाँ होती है, वह क्या है ?

उत्तर-वह चमत्कार तो होता है, पर उससे कल्याण नहीं होता । कल्याण तो जड़ता (शरीर- संसार) से ऊँचा उठने पर ही होता है ।

प्रश्न–हमने गुरुसे कंठी तो ले ली, पर  अब उनमें श्रद्धा नहीं रही तो क्या कंठी उनको वापस कर दें ?

उत्तरकंठी वापस करनेके लिये मैं कभी नहीं कहता । मैं यही सम्मति देता हूँ कि रोजाना एक माला गुरु-मन्त्रकी फेर लो  और बाकी समय जिसमें श्रद्धा हो, उस मन्त्रका जप करो और सत्संग-स्वाध्याय करो ।

प्रश्नपहले गुरु बना लिया, अब उनमें श्रद्धा नहीं रही तो उनका त्याग करनेसे पाप तो नहीं लगेगा ?

उत्तरअब आपके मनमें गुरुको छोड़नेकी इच्छा हो गयी है, उनसे श्रद्धा हट गयी तो गुरुका त्याग हो ही गया । इसलिये उस गुरुकी निन्दा भी मत करो और उसके साथ  सम्बन्ध भी मत रखो ।

जिसमें रुपयोंका लोभ हो, स्त्रियोंमें मोह हो, कर्त्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान न हो, खराब रास्तेपर चलता हो, ऐसे गुरुका त्याग करनेमें कोई पाप, दोष नहीं लगता । शास्त्रोंमें ऐसे गुरुका त्याग करनेकी बात आती है

गुरोरप्यवलिप्तस्य   कार्याकार्यमजानतः  ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य  परित्यागो  विधीयते ॥
                                           (महाभारत, उद्योग॰ १७८/४८)

यदि गुरु भी घमण्डमें आकर कर्त्तव्य और अकर्तव्यका ज्ञान खो बैठे और कुमार्ग पर चलने लगे तो उसका भी त्याग कर देनेका विधान है ।

ज्ञानहीनो गुरुस्त्याज्यो    मिथ्यावादी विकल्पकः ।
स्वविश्रान्तिं न जानाति परशान्तिं करोति किम् ॥
                         (सिद्धसिद्धान्तसंग्रह, गुरुगीता)

ज्ञानरहित, मिथ्यावादी और भ्रम पैदा करनेवाले गुरुका त्याग कर देना चहिये; क्योंकि जो खुद शान्ति नहीं प्राप्त कर सका, वह दूसरोंको शान्ति कैसे देगा ?’

पतिता गुरवस्त्याज्या माता च न कथञ्चन ।
गर्भधारणपोषाभ्यां  तेन  माता  गरीयसी ॥
                                         (स्कन्दपुराण, मा॰ कौ॰ ६/७; मत्स्यपुराण २२७/१५०)

पतित  गुरु भी त्याज्य है, पर माता किसी प्रकार ही त्याज्य नहीं है । गर्भकालमें धारण-पोषण करनेके कारण माताका गौरव गुरुजनोंसे भी अधिक है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
 ‒‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?’ पुस्तकसे

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