।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
   आश्विन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७४,रविवार
द्वादशी-श्राद्ध, विश्वकर्मापूजा
भगवत्प्राप्ति गुरुके अधीन नहीं



    जिसको हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह परमात्मतत्त्व एक जगह सीमित नहीं है, किसीके कब्जेमें नहीं है, अगर है तो वह हमें क्या निहाल करेगा ? परमात्मतत्त्व तो प्राणिमात्रको नित्य प्राप्त है । जो उस परमात्मातत्त्वको जाननेवाले महात्मा हैं, वे न गुरु बनाते हैं, न कोई फीस (भेंट) लेते हैं, प्रत्युत सबको चौड़े बताते हैं । जो गुरु नहीं बनते, वे जैसी तत्त्वकी बात बता सकते हैं, वैसी तत्त्वकी बात गुरु बनानेवाले नहीं बता सकते ।

सौदा करनेवाले व्यक्ति गुरु नहीं होते । जो कहते हैं कि पहले हमारे शिष्य बनो, फिर हम भगवत्प्राप्तिका रास्ता बतायेंगे, वे मानो भगवान्‌की बिक्री करते हैं । यह सिद्धान्त है कि कोई वस्तु जितने मूल्यमें मिलती है, वह वास्तवमें उससे कम मूल्यकी होती है । जैसे कोई घड़ी सौ रुपयोंमें मिलती है तो उसको लेनेमें दूकानदारके सौ रुपये नहीं लगे हैं । अगर गुरु बनानेसे ही कोई चीज मिलेगी तो वह गुरुसे कम दामवाली अर्थात्‌ गुरुसे कमजोर ही होगी । फिर उससे हमें भगवान्‌ कैसे मिल जायँगे ? भगवान्‌ अमूल्य हैं । अमूल्य वस्तु बिना मूल्यके मिलती है और जो वस्तु मूल्यसे मिलती है, वह मूल्यसे कमजोर होती है । इसलिये कोई कहे के मेरा चेला बनो तो मैं बात बताऊँगा, वहाँ हाथ जोड़ देना चाहिये ! समझ लेना चाहिये कि कोई कालनेमि है ! नकली गुरु बने हुए कालनेमि राक्षसने हनुमान्‌जीसे कहा था‒

सर मज्जन करि आतुर आवहु ।
दिच्छा देऊ ग्यान जेहिं पावहु ॥
                                               (मानस, लंकाकाण्ड ५७/४)

उसकी पोल खुलनेपर हनुमान्‌जीने कहा कि पहले गुरुदक्षिणा ले लो, पीछे मन्त्र देना और पूँछमें सिर लपेटकर उसको पछाड़ दिया !

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे

संसारके साथ एकता और परमात्मासे भिन्नता मानी हुई है ।
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विनाशीसे अपना सम्बन्ध माननेसे अन्तःकरण, कर्म और पदार्थ‒तीनों ही मलिन हो जाते हैं और विनाशीसे माना हुआ सम्बन्ध छूट जानेसे ये तीनों ही स्वतः पवित्र हो जाते हैं ।
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जबतक संसारसे संयोग बना रहता है, तबतक भोग होता है, योग नहीं । संसारके संयोगका मनसे सर्वथा वियोग होने़पर योग सिद्ध हो जाता है अर्थाक्त परमात्मासे अपने स्वतःसिद्ध नित्ययोगका अनुभव हो जाता है ।
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उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका आश्रय लेकर, उनसे सम्बन्ध जोड़कर सुख चाहनेवाला मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता‒यह नियम है ।
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(‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे)