।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७४,गुरुवार
                 भगवत्प्राप्तिके लिये  
          भविष्यकी अपेक्षा नहीं



(शेष आगेके ब्लॉगमें)

भगवान् ही हमारे हैं, दूसरा कोई हमारा है ही नहीं । भगवान् कहते हैं‒‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ (गीता १५ । १५) ‘मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ ।’ और ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९ । ४) ‘यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है ।’

भगवान् हृदयमें ही नहीं, प्रत्युत दीखनेवाले समस्त संसारके कण-कणमें विद्यमान हैं । ऐसे सर्वत्र विद्यमान परमात्माको जब हम सच्चे हृदयसे देखना चाहेंगे, तभी वे दीखेंगे । यदि हम संसारको देखना चाहेंगे तो भगवान् बीचमें नहीं आयेंगे, संसार ही दीखेगा । हम संसारको देखना नहीं चाहते, उससे हमें कुछ भी नहीं लेना है, न उसमें राग करना है न द्वेष, हमें तो केवल भगवान्‌से प्रयोजन है‒

इस भावसे हम एक भगवान्‌से ही घनिष्ठता कर लें । भगवान् हमारी बात सुनें या न सुनें, मानें या न मानें, हमें अपना लें या ठुकरा दें‒इसकी कोई परवाह न करते हुए हम भगवान्‌से अपना अटूट सम्बन्ध (जो कि नित्य है) जोड़ लें[*] । जैसे माता पार्वतीने कहा था‒

जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न  त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ  न  नारद  कर उपदेसू ।
आपु कहहिं सत  बार  महेसू ॥
                                 (मानस, बाल ८१ । ३)

पार्वतीके मनमें यह भाव था कि शिवजीमें ऐसी शक्ति ही नहीं है कि वे मुझे स्वीकार न करें । इसी प्रकार हम सबका सम्बन्ध भगवान्‌के साथ है । हम भगवान्‌से विमुख भले ही हो जायँ, पर भगवान् हमसे विमुख कभी हुए नहीं, हो सकते नहीं । हमारा त्याग करनेकी उनमें शक्ति नहीं है ।

बच्चा खेलना छोड़ दे और रोने लग जाय तो माँको अपना सब काम छोड़कर उसके पास आना पड़ता है और उसे गोदमें बैठाकर दुलारना पड़ता है; परन्तु यदि बच्चा खेलमें लगा रहे तो माँ निश्चिन्त रहती है । इसी प्रकार यदि हम भगवान्‌के लिये व्याकुल न होकर सांसारिक वस्तुओंमें ही प्रसन्न रहते हैं तो भगवान् निश्चिन्त रहते हैं और हमसे मिलने नहीं आते । यदि बच्चा लगातार रोने लग जाय और माँके बिना किसी भी वस्तु (खिलौने आदि)-से प्रसन्न न हो तो घरके सभी लोग बच्चेके पक्षमें हो जाते हैं और उसकी माँको कहते हैं‒‘बच्चा रो रहा है और तुम काममें लगी हो ! आग लगे तुम्हारे कामको ! जल्दी बच्चेको गोदमें ले लो ।’ उस समय माँ कितना ही आवश्यक कार्य क्यों न कर रही हो, बच्चेके रोनेके आगे उस कार्यका कोई मूल्य नहीं रहता । इसी प्रकार हम एकमात्र भगवान्‌के लिये रोने लग जायँ तो भगवद्धामके सब सन्तजन हमारे पक्षमें हो जायँ ! वे सभी कहने लग जायँ‒‘महाराज ! बच्चा रो रहा है; आप मिलनेमें देर क्यों कर रहे हैं ? फिर भगवान्‌के आनेमें कोई देर नहीं लगती । हाँ, जब बच्चा खिलौनोंसे खेल भी रहा हो और ऊपरसे ऊँ... ऊँ भी कर रहा हो, तब उसे माँ गोदमें नहीं लेती । इसी प्रकार हम सांसारिक खिलौनोंसे भी खेलते हों और रोनेका ढोंग भी करते हों, तब भगवान् नहीं आते । वे हमारे आन्तरिक भावको देखते हैं, क्रियाको नहीं । मान-आदर, सुख-आराम, धन-सम्पत्ति, सिद्धियाँ आदि सब सांसारिक खिलौने हैं । जैसे माँकी गोद, उसका प्यार, खिलौने आदि सब कुछ बच्चेके लिये ही होते हैं, ऐसे ही भगवान्‌की गोद, उनका प्यार तथा उनके पास जो भी सामग्री है, सब भक्तके लिये ही होती है । यदि हम किसी भी वस्तुमें राजी न होकर भगवान्‌को पुकारने लगें तो वे तत्काल आ जायँगे । इसमें भविष्यकी क्या बात है ? माँ बच्चेकी योग्यताको देखकर उसके पास नहीं आती । वह यह नहीं देखती कि बच्चा बहुत सुन्दर है, विद्वान् है या धनवान् है । बच्चेमें माँको बुलानेकी यही एक योग्यता है कि वह केवल माँको चाहता है और माँके सिवाय दूसरी किसी भी वस्तुसे राजी नहीं होता ।



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे



[*] वास्तवमें भगवान्‌के साथ हमारा सदासे ही अटूट सम्बन्ध है । परन्तु भगवान्‌से विमुख हो जानेके कारण हमें उस सम्बन्धका अनुभव नहीं होता ।