।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
 मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७४,बुधवार
                       प्रश्नोत्तर



प्रश्नोत्तर

प्रश्न‒जब भगवत्प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है तो फिर भगवत्प्राप्ति कठिन क्यों दीखती है ?

स्वामीजी‒भोगोंमें आसक्ति रहनेके कारण । भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं है, भोगोंकी आसक्तिका त्याग कठिन है ।

प्रश्न‒भगवत्प्राप्ति कठिन कहें अथवा भोगासक्तिका त्याग कठिन कहें, बात तो एक ही हुई ?

स्वामीजी‒नहीं, बहुत बड़ा अन्तर है । भगवत्प्राप्तिको कठिन माननेसे साधक श्रवण, मनन, जप, स्वाध्याय आदिमें ही तेजीसे लगेगा और भोगासक्तिके त्यागकी तरफ ध्यान नहीं देगा । वास्तवमें भगवान् तो प्राप्त ही हैं, केवल संसारके सम्बन्धका त्याग करना है ।

प्रश्न‒भगवत्प्राप्ति सुगम कैसे है ?

स्वामीजी‒भगवान् नित्यप्राप्त हैं । वे प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति और घटनामें परिपूर्ण हैं । उनकी प्राप्ति जड़ता (शरीर-संसार)-के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होती है । परन्तु नाशवान् संसारकी तरफ दृष्टि रहनेसे, नाशवान् सुखकी आसक्ति रहनेसे नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव नहीं होता । यह जानते हैं कि शरीर-संसार नाशवान् हैं, फिर भी इस जानकारीको आदर नहीं देते ! वास्तवमें ‘शरीर-संसार नाशवान् हैं’इसको सीख लिया है, जाना नहीं है । इसलिये नाशवान् जानते हुए भी सुख-लोलुपताके कारण उसमें फँसे रहते हैं । वास्तवमें नित्यनिवृत्तकी निवृति करनी है और नित्यप्राप्तकी प्राप्ति करनी है ।

प्रश्न‒नित्यनिवृत्तकी निवृत्ति और नित्यप्राप्तकी प्राप्ति करना क्या है ?

स्वामीजी‒नित्यनिवृत्तकी निवृत्ति करनेका तात्पर्य है‒जो नित्यनिवृत्त है, उस शरीर-संसारको रखनेकी भावना छोड़ना अर्थात् वह बना रहे‒इस इच्छाका त्याग करना । नित्यप्राप्तकी प्राप्ति करनेका तात्पर्य है‒जो नित्यप्राप्त है, उस परमात्मतत्त्वको श्रद्धा-विश्वासपूर्वक स्वीकार करना ।

जो कभी भी अलग होगा, वह अब भी अलग है और जो कभी भी मिलेगा, वह अब भी मिला हुआ है । शरीर, वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य ‘नित्यनिवृत्त’ अर्थात् सदा ही हमसे अलग हैं और परमात्मा ‘नित्यप्राप्त’ अर्थात् सदा ही हमें प्राप्त हैं । जो तत्त्व सब जगह ठोस रूपसे विद्यमान है, वह हमसे दूर हो सकता ही नहीं । परमात्मा कभी हमसे अलग हुए नहीं, हैं नहीं, होंगे नहीं और हो सकते नहीं; क्योंकि उसीकी सत्तासे हम सत्तावान् हैं ।

प्रश्न‒परमात्मप्राप्ति बहुत सुगम है तो फिर उसमें बाधा क्या लग रही है ?

स्वामीजी‒अनेक बाधाएँ हैं; जैसे‒

(१)  भोग भोगने और संग्रह करनेमें आसक्ति है ।

(२)  परमात्मप्राप्तिकी जोरदार जिज्ञासा (भूख) नहीं है ।


(३)  अपनी वर्तमान स्थितिमें सन्तोष कर रखा है ।

(४) परमात्मप्राप्तिको सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिकी तरह मान रखा है । इस मान्यताके कारण क्रिया करनेको अधिक महत्त्व देते हैं, विवेक और भावको महत्व नहीं देते ।

(४)  तत्त्वको ठीक तरहसे जाननेवाले महात्मा नहीं मिले ।

(५)  थोड़ी-सी बातें जानकर, थोड़ा-सा साधन करके अभिमान कर लेते हैं ।


(७) कुछ करनेसे प्राप्ति होगी, गुरु नहीं मिला, समय ऐसा ही है, प्रारब्ध ऐसा ही है, हम योग्य नहीं हैं, हम अधिकारी नहीं हैं‒ऐसे जो संस्कार भीतर बैठे हैं, वे बाधा देते हैं ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे