(गत ब्लॉगसे आगेका)
मेरी प्रार्थना है कि आप हृदयसे भगवान्से प्रार्थना करो‒
‘हे नाथ ! मैं आपको
भूलूँ नहीं । मैं आपसे सुख नहीं चाहता । एक ही बात चाहता हूँ कि भीतरमें ऐसी लगन हो
जाय, ऐसी चाहना हो जाय, ऐसी व्याकुलता हो
जाय कि मैं आपके बिना रह न सकूँ । हे नाथ ! ऐसी कृपा करो कि आपको
कभी भूलूँ नहीं । आपने बहुत कृपा की है, फिर भी मैं समझता नहीं
!’
‘हे नाथ ! मेरी सांसारिक
सुखकी, सांसारिक चीजोंकी चाहना भी हो जाय तो उसको आप पूरी मत
करो । जिससे मेरा केवल आपके ही चिन्तनमें मन लग जाय, ऐसी कृपा
करो । मैंने बहुत दुःख पा लिया, फिर भी चेत नहीं हो रहा है,
होश नहीं आ रहा है, आपसे प्रार्थना करनेकी जोरदार
मनमें नहीं आ रही है ! मैं हैरान हो गया हूँ ! अब ऐसी कृपा करो कि आपको भूलूँ नहीं ! आपके सिवाय मेरी
और कौन सुनेगा ? किससे कहूँ ? कोई सुननेवाला
नहीं ! मेरेपर कृपा करनेवाला कोई दीखता नहीं ! आप कृपा करो । ऐसी कृपा करो कि मैं आपको भूलूँ नहीं । आपने बहुत कृपा की है,
पर मेरेको चेत नहीं हो रहा है । आप चेत कराओ । मैं माँग भी नहीं सकता;
क्योंकि माँगनेकी भीतरमें जोरदार इच्छा ही नहीं होती ! मैं हैरान हो गया हूँ ! कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ? कौन सुने ? सिवाय
आपके कोई सुननेवाला नहीं है !’
‘मेरी दशा ऐसी हो रही है कि हृदयमें प्रेम नहीं है, स्नेह नहीं है,
आपकी तरफ आकर्षण नहीं है ! मेरा संसारके भोगोंमें
आकर्षण होता है ! जो चीजें पतन करनेवाली हैं, उन चीजोंमें अच्छापन दीखता है ! क्या करूँ ? सिवाय आपके कोई कुछ नहीं कर सकता । हे नाथ, आप कृपा करो.....कृपा करो.....कृपा करो ! आपने बहुत
कृपा की है, पर मेरेको होश नहीं हो रहा है ! हे नाथ ! हे कृपासिन्धो ! आपकी
तरफ जैसी लगन होनी चाहिये, वैसी नहीं हो रही है ! मैं आपकी दृष्टिमें आनेलायक भी नहीं हूँ पर क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? आपके समान परम दयालु परम सुहद् कोई दीखता
नहीं । फिर भी आपपर पूरा विश्वास, भरोसा नहीं होता है !
इस कमीको आप ही मिटाओ । मैं मिटा नहीं सकता । मेरे पास ऐसे शब्द नहीं
हैं; क्योंकि ऐसे भाव नहीं हैं ! भावके
बिना शब्द आते नहीं !’
‘आपने अपनी तरफसे बहुत कृपा की है, फिर भी आपसे कृपा ही
चाहता हूँ । क्या करूँ ? अक्ल नहीं है, समझ नहीं है ! याद नहीं रहता, भूल
जाता हूँ ! हे कृपासिन्धो ! ऐसी कृपा करो
कि आपको भूलूँ नहीं । मेरे भीतरमें ऐसी लगन नहीं पैदा होती ! क्या करूँ ? मैं कहनेलायक नहीं हूँ; परन्तु आपकी बात ऐसी है कि आपके यहाँ अयोग्य भी योग्य हो जाता है, अपात्र भी पात्र हो जाता है, पापी भी पवित्र हो जाता
है ! आपकी प्रभुता अपार है, अपार है,
अपार है ! कभी सन्तोंसे सुन लेता हूँ कभी चिन्तनमें
बात आ जाती है तो उससे कुछ होश आता है, पर फिर भूल जाता हूँ !
हे नाथ, आप कृपा करो । आपने बहुत कृपा की है,
बहुत अच्छा मौका दिया है, पर मैं चेत नहीं कर पाया
! मुझे चेत करानेवाला आपके सिवाय और कौन है ? एक आपके सिवाय कोई सुननेवाला नहीं है । मेरे पास शब्द नहीं है ! प्रार्थना करनेका बल नहीं है ! मैं अपनेको सर्वथा अयोग्य
समझता हूँ । जो आपके प्यारे भक्त हुए हैं, उनकी प्रार्थनाको आपने
सुना है । पर मैं वैसा हूँ नहीं ! मेरेको ठीक दीखता है कि मैं
सच्चे हृदयसे चाहता नहीं हूँ । आप सर्वसमर्थ हो, सब कुछ कर सकते
हो । मेरे-जैसेको भी आप अपनाते हो, कृपा
करते हो, यह मैं जानता हूँ । कई बातें याद आती हैं, पर फिर भूल जाता हूँ ! मैं चाहता हूँ कि आपके दरबारमें
पड़ा रहूँ, आपको याद करता रहूँ, आपकी तरफ ही मेरी दृष्टि रहे ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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