।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७४, सोमवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

  सांसारिक जानकारी रखनेवाला दूसरेको बताता नहीं, और पारमार्थिक जानकारीवाला दूसरेको बताये बिना रहता नहीं ! सांसारिक जानकारीको लोग छिपाते हैं । परन्तु पारमार्थिक जानकार अपनी जानकारीको छिपा सकता ही नहीं ! अगर वह छिपाये तो उस जानकारीका वह करेगा क्या ? माँका दूध क्या माँ पीती है ? वह तो बालकोंके लिये ही होता है । ऐसे ही उसकी जानकारी अनजानोंके लिये ही होती है । कारण कि वह तो जान गया, अब उसको जानकारीकी जरूरत क्या रही ? वह जानकारी दूसरेके लिये है । हाँ, कोई नहीं मिले तो बात अलग है ! फल पकता है तो तोता आता है, साधक पकता है तो सिद्ध आता है !

श्रोता आपने कहा ‘के तो निज पारस नहीं कै बीच रहा बिछोहा’ तो यह बीचका बिछोह, आड़ क्या है ?

स्वामीजीसाधक हृदय खोलकर मिलता नहीं । हृदय खुले बिना काम बनता नहीं । वह हृदय खोलकर मिले तो पट काम हो जायगा ! हरेक जगह आदमीका हृदय खुलता नहीं । सरल स्वभाव हो, हृदयमें कपट नहीं हो‒‘सरल सुभाव न मन कुटिलाई’ । साधकमें सरलता चाहिये और गुरुमें योग्यता चाहिये । फिर चट काम होता है ! वह सरलता हरेक जगह नहीं मिलती । बिलमें जानेके लिये साँपको भी सीधा होना पड़ता है, नहीं तो वह जा नहीं सकता । भगवान् कहते हैं

सरल सुभाव न मन कुटिलाई ।    जथा लाभ संतोष सदाई ॥
मोर दास कहाइ नर आसा । करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई ।    एहि आचरन बस्य मैं भाई ॥
                                                  (मानस, उत्तर ४६ । १-)

‘सरल स्वभाव हो, मनमें कुटिलता न हो और जो कुछ मिले, उसीमें सदा सन्तोष रखे । मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्योंकी आशा करता है तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है ? बहुत बात बढ़ाकर क्या कहूँ, हे भाइयो ! मैं तो इसी आचरणके वशमें हूँ ।’

दूसरेकी थोड़ी-भी आशा बाधा लगा देती है ! इसलिये अनन्यभाव होना चाहिये । अपनी योग्यताकी, अपनी बुद्धिकी, अपने वर्णकी, अपने आश्रमकी आशा भी बाधक होती है !

तत्त्वप्राप्तिमें देरी तब लगती है, जब ठीक बतानेवाला नहीं मिलता । बतानेवाला मिल जाय, पर सुननेवाला ठीक समझे नहीं, तब भी देरी लगती है । ठीक बतानेवाला मिल जाय और सुननेवाला ठीक समझ ले तो बहुत जल्दी काम होता है । अगर विचार किया जाय तो संसारमें परमात्माकी प्राप्तिके समान सुगम काम कोई है ही नहीं ! तो फिर सबको प्राप्ति क्यों नहीं हो रही है ? क्योंकि सबकी वैसी इच्छा नहीं है । एक परमात्माके सिवाय दूसरी कोई इच्छा न हो, ऐसा आदमी बहुत कम मिलता है । भीतरकी इच्छा कम होती है, इसलिये देरी लगती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे