।। श्रीहरिः ।।

 

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७५, गुरुवार
                  मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

[ निम्नलिखित विषय पैम्फ्लैटके रूपमें गीताभवन, स्वर्गाश्रम, ऋषिकेशमें सत्संग-कार्यक्रममें आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा, २०५८ (दि ५.७.२००१) के दिन वितरित किया गया था । इसके प्रति परमश्रद्धेय श्रीस्वामीजी महाराजने दिनांक १७.७.२००१, प्रातः ८.३० को अपने प्रवचनमें कहा था‘इस पन्नेमें लिखी हुई बातें बहुत मूल्यवान् हैं ! यह पन्ना इतना मुख्य है कि हजारों ग्रन्थोंमें जो चीज नहीं मिलेगी वह इसमें मिलेगी !]

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

परमात्मप्राप्तिके तीन मुख्य मार्ग

परमात्मप्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है । इसमें न तो भविष्यकी अपेक्षा है और न क्रिया एवं पदार्थकी ही अपेक्षा है । परमात्मप्राप्तिके तीन मुख्य मार्ग हैंज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । भगवान् कहते हैं‒

योगास्त्रयो  मया  प्रोक्ता   नृणां  श्रेयोविधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥
                              (श्रीमद्भागवत ११ । २० । ६)

‘अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योग बताये हैंज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है ।’

ज्ञानयोग (विवेकमार्ग)

अपने जाने हुए असत्का त्याग करना ‘ज्ञानयोग’ है । इसके तीन उपाय हैं

१.   अनन्त ब्रह्माण्डोमें लेशमात्र भी कोई वस्तु मेरी नहीं हैऐसा जानना ।

२.   मुझे कुछ भी नहीं चाहियेऐसा जानना ।


३.   मैंकुछ नहीं हैऐसा जानना ।

कर्मयोग (योगमार्ग)

बुराईका सर्वथा त्याग करना ‘कर्मयोग’ है । इसके तीन उपाय हैं

१.   किसीको बुरा न समझना, किसीका बुरा न चाहना और किसीका बुरा न करना ।

२.   दुःखी व्यक्तियोंको देखकर करुणित और सुखी व्यक्तियोंको देखकर प्रसन्न होना ।


३.   अपने लिये कुछ न करना अर्थात् संसारसे मिली हुई वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देना और बदलेमें कुछ न चाहना ।

भक्तियोग (विश्वासमार्ग)

सर्वथा भगवान्‌के शरणागत हो जाना ‘भक्तियोग’ है । इसके दो उपाय हैं

         १.   मैं केवल भगवान्‌का अंश हूँ‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५ । ७), ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ११७ । १) भगवान्‌का ही अंश होनेके नाते मैं केवल भगवान्‌का ही हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं । भगवान्‌के सिवाय और कोई मेरा नहीं हैऐसा मानना ।

          २.   क) सब कुछ भगवान्‌का ही है अर्थात् संसारमें जो कुछ भी देखने, सुनने तथा मनन करनेमें आता है, वह सब भगवान्‌का ही हैऐसा मानना ।


ख) सब कुछ भगवान् ही हैं; भगवान्‌के सिवाय कुछ भी नहीं है । मैं’-सहित सम्पूर्ण जगत्‌ उन्हींका स्वरूप है‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९)ऐसा मानना ।

ग)   एक भगवान्‌के सिवाय अन्य कुछ हुआ ही नहीं, कभी होगा ही नहीं, कभी होना सम्भव ही नहीं । एकमात्र भगवान् ही थे, भगवान् ही हैं और भगवान् ही रहेंगेऐसा मानना ।

भक्तिसे प्रतिक्षण वर्धमान परमप्रेमकी प्राप्ति होती है । एक भगवान् ही प्रेमी और प्रेमास्पदका रूप धारण करके परमप्रेमकी लीला करते हैं । उस परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानव-जीवनकी पूर्णता है ।




नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे