।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
    वैशाख शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार  
            आद्य जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य-जयन्ती
                     अनन्तकी ओर     



सन्तोंकी एक-एक बातपर अगर ख्याल करें तो एक-एक बातसे बेड़ा पार हो जाय ! जो वस्तु मिलने और बिछुड़नेवाली है, वह अपनी नहीं होती, अपने लिये लाभदायक नहीं होती‒इस एक बातको मान लें तो बेड़ा पार हो जाय ! इस एक बातमें बहुत विलक्षणता भरी हुई है ! जबतक मनुष्य मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपनी और अपने लिये मानता है, तबतक वह बिल्कुल भूलमें ही है । जबतक वह इस भूलको मिटायेगा नहीं, तबतक कल्याण नहीं होगा.....नहीं होगा.....नहीं होगा ! मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तु केवल दुःख देनेवाली होगी । उससे सिवाय दुःखके और कुछ नहीं मिलेगा । नया-नया, तरह-तरहका दुःख आता ही रहेगा । जबतक आपके भीतर यह बात रहेगी कि मिली हुई वस्तु अपनी और अपने लिये है, तबतक धोखा-ही-धोखा, धोखा-ही-धोखा, धोखा-ही-धोखा होगा‒यह अकाट्य नियम है, जो कभी फेल नहीं होगा ! आप इस एक बातपर खूब गहरा विचार करो । मिले हुएको अपना माननेसे सिवाय रोनेके कुछ नहीं मिलेगा । सदा रोते ही रहोगे !

जो वास्तवमें अपना होता है, वह कभी बिछुड़ सकता ही नहीं । केवल भगवान् ही खास अपने हैं । वे कभी हमसे बिछुड़ते नहीं, बिछुड़ सकते ही नहीं । वे हमें मिले हुए ही हैं । केवल उधर हमारी दृष्टि नहीं है । सन्तोंने कहा है कि जो सदासे मिला हुआ है और कभी बिछुडता नहीं, ऐसा हमारा साथी एक भगवान् ही हैं । उनके सिवाय और कोई हमारा साथी कभी नहीं हो सकता ।

☀☀☀☀                 ☀☀☀☀

भगवान् सर्वसमर्थ हैं । उनमें सब तरहकी सामर्थ्य है, पर हमसे अलग होनेकी सामर्थ्य नहीं है ! वे सबके परम सुहद् हैं‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५ । २९) । सुहृद् और मित्रमें फर्क होता है । जो मित्र होता है, वह उपकारके बदले उपकार करता है, पर सुहृद् सदा उपकार ही करता है । दूसरा अपकार करे तो भी वह उपकार ही करता रहता है । उपकार करना उसका स्वभाव होता है । सन्तोंके लक्षणोंमें भी यही बात आती है‒‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’ (श्रीमद्भा ३ । २५ । २१) । भगवान् और उनके भक्त‒ दोनों ही सुहृद्, बिना हेतु स्वतः-स्वाभाविक सबका हित करनेवाले होते हैं‒

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
                                  (मानस, उत्तर ४७ । ३)

भगवान्‌का और उनके भक्तोंका क्रोध भी वरदानके समान होता है‒‘क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्यः’ (पाण्डवगीता २३) । सन्तोंके द्वारा अपकार करनेवालेके प्रति भी अपकार नहीं होता, प्रत्युत उपकार ही होता है । उनके द्वारा कभी किसीको बन्धन नहीं होता ।

साधूनां समचित्तानां    सुतरां मत्कृतात्मनाम् ।
 दर्शनान्नो भवेत् बन्धः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा ॥
                                      (श्रीमद्भा १० । १० । ४१)

जिनकी बुद्धि समदर्शी है और हृदय पूर्णरूपसे मेरे प्रति समर्पित है, उन सन्तोंके दर्शनसे बन्धन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना ।’